महाभारत में ज्योतिष विज्ञान, रामायण काल श्रीमद्भागवत काल में ज्योतिष, फलित ज्योतिष, mahabharat,ramayan mai jyotish shastra
भारतीय ज्योतिष विश्व का अत्यन्त प्राचीन विज्ञान है। वैज्ञानिकों के मतानुसार, पृथ्वी सूर्य का अंश है तथा सूर्य की गतिविधि का प्रभाव पृथ्वी पर स्थित प्राणियों पर पड़ता है। अतः प्राचीन काल से ही मनष्य, सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के रहस्यों के समाधान ढूंढ रहा है। ज्योतिष का साक्षात् सूर्य की रश्मियों से सम्बन्ध होने के कारण यह अति प्राचीन क्रमबद्ध तथा लोकोपयोगी विज्ञान है। यह विज्ञन के समान अपने समस्त तथ्यों को प्रमाणित रूप में व्यक्त करता है साथ ही विज्ञान का विशेष गुण प्रत्यक्ष प्रमाण का होना भी ज्योतिष शास्त्र को ज्योतिष विज्ञान बना देता है। चन्द्रशेखरन ने ज्योतिष को प्रत्यक्ष शास्त्र माना है।
ज्योतिष विज्ञान सामान्य परिचय
ज्योतिष एक महान शास्त्र है, जिसमें ग्रह नक्षत्र आदि की गति और स्थिति का अध्ययन किया जाता है। आकाश में स्थित ज्योतिपिण्डों के संचार और उनसे बनाने वाले गणितगत पारस्परिक सम्बन्धों के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करने वाली विद्या का नाम ‘ज्योतिषशास्त्र' है।
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषुकेवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिष शास्त्रं चन्द्राकौयस्य साक्षिणौ।।
कि नभोमण्डल में स्थित विविध ज्योतिषियों से सम्बन्धित विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते
प्राचीन ऋषियों तथा विद्वानों के मतानुसार ज्योतिष शास्त्र षड्वेदाङ्गों में से एक है, यथा -
शिक्षा,
कल्प,
व्याकरण,
ज्योतिष,
निरूक्त,
छन्द
चूंकि वेद अपौरूषेय है अतः वेदाङ्ग भी अपौरूषेय माने गये हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर ज्योतिष विज्ञान का वर्णन मिलता है। यथा – ऋग्वेद में बारह राशियों का वर्णन', यजुर्वेद में नक्षत्रदश (ज्योतिषी) का वर्णन', छान्दोग्य उपनिषद में नक्षत्र विद्या का वर्णन आदि। षड्वेदाङ्गों में ज्योतिष शास्त्र को नेत्रस्थानीय माना गया है। इस सन्दर्भ में श्रीमद् भास्कराचार्य का कथन है,
शब्द शास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी, श्रोत्रमुक्तं निरूक्तं कल्पः करौ। या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका, पादपद्मयछन्द आद्यैर्बुधैः ।।
ज्योतिष शास्त्र के प्रमुख रूप से दो भाग हैं -
काल ज्योतिष, फलित ज्योतिष।
काल ज्योतिष को 'गणित ज्योतिष' भी कहा जाता है। इसमें सिद्धान्त, करण तथा तंत्र तीन शाखाएं हैं। इसके अनुसार सृष्टि के आरम्भ से अब तक बीते गये वर्ष, मास, दिन, वर्ष अयन, ऋतु, ग्रहों की गति, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, नक्षत्र, योग-करण आदि का अध्ययन किया जाता है। हजारों वर्ष पूर्व ज्योतिष विज्ञान की इस शाखा में भारतीय आचार्यों ने सिद्धता प्राप्त कर अनेक सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की थी। यह खगोल ज्ञान है जिसे आधुनिक विज्ञान में Astronomy कहते हैं।
फलित ज्योतिष के दो स्कन्ध माने गये हैं –
होरा तथा संहिता।
होरा शास्त्र के अनुसार मनुष्य के जन्म से मृत्युपर्यन्त जीवन की घटनाओं की फलित के अनुभूत सिद्धान्तों के अनुसार व्याख्या की जाती है। इसका दार्शनिक आधार पुनर्जन्म और कर्मवाद है। संहिता शास्त्र में वर्षा, भूकम्प, ग्रहण प्रभाव, ग्रह निर्माण का ज्ञान, यज्ञ के मूहूर्त, शकुन-अपशकुन, रत्न परीक्षण, अङ्ग लक्षण आदि का अध्ययन किया जाता है।'
महाभारत तथा ज्योतिष विज्ञान
mahabharat mai jyotish
वैदिक युग में यज्ञादि धार्मिक कार्यों को सही समय पर करने के लिए ज्योतिष का विकास हुआ। वेदाङ्ग ज्योतिष में यज्ञों के सन्दर्भ में ज्योतिष की महत्ता को निम्नलिखित रूप व्यक्त किया गया है -
वेदा हि यज्ञार्थमभि प्रवृत्ताः कालनुपूर्व्या विहिताश्च यज्ञाः ।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिष वेद सवेदयज्ञम् ।।' ज्योतिष के महत्व का वर्णन पुनः वेदाङ्ग ज्योतिष में मिलता है, यथा -
यथा शिक्षा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धानि स्थितम्।।
रामायण काल में ज्योतिष विज्ञान अत्यन्त विकसित था। उस काल में ज्योतिषी को 'लाक्षणिक', 'लक्षणी', 'कार्तान्तिक', 'गणक' या 'दैवज्ञ' कहा जाता था। इस सन्दर्भ में अयोध्या काण्ड में सीता के वनवास की पूर्व-घोषणा ज्योतिषियों द्वारा उनके पितृ गृह में किये जाने का उल्लेख मिलता है। महाभारत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ने ज्योतिष के महत्व को स्पष्ट करते हुए अनुशासन पर्व में शिवसहस्रनामस्तोत्र में भगवान शिव का एक नाम 'नक्षत्र विग्रह मतिः' बताया है
जिसका अर्थ है – नक्षत्र, ग्रह, तारा आदि की गति को जानने वाले।' महर्षि व्यास ने महाभारत में काल गणना का प्रारम्भ, विभिन्न मापें यथा - चतुर्युग, कल्प, मन्वन्तर आदि, आकाशीय गणना यंत्र, तिथि गणना का वैज्ञानिक विश्लेषण, ग्रहों के प्रभाव, फलित ज्योतिष यथा - मूहूर्त नक्षत्र, स्वप्न, व्रतोपवास, श्राद्ध आदि का विस्तृत उल्लेख किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में ज्योतिष विज्ञान अत्यन्त विकसित था।
महाभारत तथा काल ज्योतिष
भारतीय ज्योतिष का प्राचीनतम इतिहास सुदूर भूतकाल के गर्भ में छिपा हुआ है। अतः प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में तथा महाकाव्यों (रामायण तथा महाभारत) में इस विज्ञान का पर्याप्त उल्लेख मिलता है, जिससे उस काल में प्रचलित ज्योतिष विज्ञान की विकसित दशा का बोध होता है। आधुनिक समय में ज्योतिष के रूप में केवल फलित ज्योतिष को महत्व दिया जाता है जबकि प्राचीनकाल में काल ज्योतिष (गणित ज्योतिष) ही प्रधान माना जाता था। ज्योतिष की सबसे प्राचीन पुस्तक 'वेदाङ्ग ज्योतिष' में 'ज्योतिष' शब्द स्पष्टतः ‘गणित ज्योतिष' (Astronomy) का सूचक है। आज विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि काल की गणना गति से तथा गति की गणना काल से होती है तथा ये दोनों अन्योन्याश्रित है। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है।
महाभारत में ज्योतिष विषयक तथ्यों का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। महर्षि व्यास ने महाभारत के शान्तिपर्व में काल की प्रबलता तथा महत्व का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाते हुए कथन है कि
नक्षत्र विग्रहमतिर्गुणबुद्धिर्लयोऽगमः।
महा. भा. अनु. पर्व. 17.59 2
याजुष'-वेदाङ्ग ज्यो
में 'ज्योतिष' के स्थान पर 'गणित' पाठ है। अर्थात् – 'ज्योतिष और 'गणित' शब्द एक दूसरे के परिपूरक हैं।
द्वादशारं नहि तज्जराक्ष वर्वति चक्रं परिद्यामृतस्य । आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्वं तस्युः ।। ऋ.वे. 1.184.11
विधि के विधान से प्रेरित हो सभी क्षत्रिय काल के गाल में चले गये हैं। काल समस्त प्रजा वर्ग के कर्म का साक्षी है। वही मनुष्य के कर्मों का फल समयानुसार प्रदान करता है। अतः इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में'काल' अर्थात् 'समय' के महत्व से सभी भली-भांति परिचित थे।
श्रीमद्भागवत में लिखित एक प्रसङ्गानुसार, राजा परीक्षित द्वारा महामुनि शुकदेव के प्रति यह प्रश्न किया गया कि काल क्या है ? उसका सूक्ष्मतम और महत्तम रूप क्या है ? इसका उत्तर देते हुए शुकदेव का कथन है कि "विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। उसी को निमित्त बना वह काल तत्त्व अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है। इस कथन के अनुसार काल अमूर्त तत्त्व है तथा घटने वाली घटनाओं से ही इसे ज्ञात किया जा सकता है,
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