ऐतरेयोपनिषद प्रथम अध्याय तृतीय खण्ड मंत्र ०१ से १४ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, उपनिषद गंगा सुखी होने का रहस्य
स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति॥१॥
व्याख्या- इन सबकी रचना हो जानेपर परमेश्वरने फिर विचार किया 'ये सब लोक और लोकपाल तो रचे गये—इनकी रचनाका कार्य तो पूरा हो गया। अब इनके निर्वाहके लिये अन्न भी होना चाहिये-भोग्य पदार्थों की भी व्यवस्था होनी चाहिये; क्योंकि इनके साथ भूख-प्यास भी लगा दी गयी है।अतः उस अन्नकी भी रचना करूँ॥१॥
सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत। या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत्॥२॥
व्याख्या- उपर्युक्त प्रकारसे विचार करके परमेश्वरने जलको अर्थात् पाँचों सूक्ष्म महाभूतोंको तपाया-अपने संकल्पद्वारा उनमें क्रिया उत्पन्न की। परमात्माके संकल्पद्वारा संचालित हुए उन सूक्ष्म महाभूतोंसे मूर्ति प्रकट हुई अर्थात् उनका स्थूल रूप उत्पन्न हुआ। वह जो मूर्ति अर्थात् उन पाँच महाभूतोंका स्थूलरूप उत्पन्न हुआ; वही अन्न-देवताओंके लिये भोग्य है॥२॥
तदेनत् सृष्टं पराडत्यजिघांसत्तद्वाचाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोद्वाचा ग्रहीतुम्। यद्धैनद्वाचाग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥३॥
व्याख्या- लोकों और लोकपालोंकी आहारसम्बन्धी आवश्यकताको पूर्ण करनेके लिये उत्पन्न किया हुआ वह अन्न यों समझकर कि यह मुझे खानेवाला तो मेरा विनाशक ही है, उससे छुटकारा पानेके लिये मुख फेरकर भागने लगा। तब उस मनुष्यके रूपमें उत्पन्न हुए जीवात्माने उस अन्नको वाणीद्वारा पकड़ना चाहा; परंतु वह उसे वाणीद्वारा पकड़ नहीं सका। यदि उस पुरुषने वाणीद्वारा अन्नको ग्रहण कर लिया होता तो अब भी मनुष्य अन्नका वाणीद्वारा उच्चारण करके ही तृप्त हो जाते-अन्नका नाम लेनेमात्रसे उनका पेट भर जाता; परंतु ऐसा नहीं होता॥३॥
तत्प्राणेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥४॥
व्याख्या- तब उस पुरुषने अन्नको प्राणके द्वारा अर्थात् घ्राण-इन्द्रियके द्वारा पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको घ्राण-इन्द्रियके द्वारा भी नहीं पकड़ सका। यदि वह इस अन्नको घ्राण-इन्द्रियद्वारा पकड़ सकता तो अब भी लोग अन्नको नाकसे सूंघकर ही तृप्त हो जाते; परंतु ऐसा नहीं देखा जाता॥४॥
तच्चक्षुषाजिघृक्षत्तन्नाशनोच्चक्षुषा ग्रहीतुं स यद्धैनच्चक्षुषाग्रहैष्यद् दृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥५॥
व्याख्या- फिर उस पुरुषने अन्नको आँखोंसे पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको आँखोंके द्वारा भी नहीं पकड़ सका। यदि वह इस अन्नको आँखोंसे ग्रहण कर सकता तो अवश्य ही आजकल भी लोग अन्नको केवल देखकर ही तृप्त हो जाते; परंतु ऐसी बात नहीं देखी जाती ॥५॥
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं स यद्धैनच्छ्रोत्रेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥६॥
व्याख्या- फिर उस पुरुषने अन्नको कानोंद्वारा पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको कानोंद्वारा भी नहीं पकड़ सका। यदि वह इसको कानोंसे पकड़ सकता तो अवश्य ही अब भी मनुष्य केवल अन्नका नाम सुनकर ही तृप्त हो जाते; परंतु यह देखने में नहीं आता॥६॥
तत्त्वचाजिघृक्षत्तन्नाशनोत्त्वचा ग्रहीतुं स यद्धैनत्त्वचाग्रहैष्यत्स्पृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥७॥
व्याख्या- तब उस पुरुषने अन्नको चमड़ीद्वारा पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको चमड़ीद्वारा भी नहीं पकड़ सका। यदि वह इसको चमड़ीद्वारा पकड़ पाता तो अवश्य ही आजकल भी मनुष्य अन्नको छूकर ही तृप्त हो जाते; परंतु ऐसी बात नहीं है॥७॥
तन्मनसाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोन्मनसा ग्रहीतुं स यद्धैनन्मनसाग्रहैष्यद्ध्यात्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥८॥
व्याख्या- तब उस पुरुषने अन्नको मनसे पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको मनके द्वारा भी नहीं पकड़ सका। यदि वह इसको मनसे पकड़ पाता तो अवश्य ही आज भी मनुष्य अन्नका चिन्तन करके ही तृप्त हो जाते; परंतु ऐसी बात देखनेमें नहीं आती॥८॥
खण्ड ३]
ऐतरेयोपनिषद् तच्छिश्नेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छिश्नेन ग्रहीतुं स यद्धै नच्छिश्नेनाग्रहैष्यद्विसृज्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥९॥
व्याख्या- फिर उस पुरुषने अन्नको उपस्थ (लिङ्ग) द्वारा पकड़ना चाहा; परंतु वह उसको उपस्थके द्वारा नहीं पकड़ सका। यदि वह उसको उपस्थद्वारा पकड़ पाता तो अवश्य ही अब भी मनुष्य अन्नका त्याग करके ही तृप्त हो जाते; परंतु यह देखने में नहीं आता॥९॥
तदपानेनाजिघृक्षत्तदावयत् सैषोऽन्नस्य ग्रहो यद्वायुरन्नायुर्वा एष यद्वायुः॥१०॥
व्याख्या- अन्तमें उस पुरुषने अन्नको मुखके द्वारसे अपानवायुद्वारा ग्रहण करना चाहा, अर्थात् अपानवायुद्वारा मुखसे शरीरमें प्रवेश करानेकी चेष्टा की; तब वह अन्नको अपने शरीरमें ले जा सका। वह अपानवायु जो बाहरसे शरीरके भीतर प्रश्वासके रूपमें जाता है, यही अन्नका ग्रह-उसको पकड़नेवाला अर्थात् भीतर ले जानेवाला है। प्राणवायुके सम्बन्धमें जो यह प्रसिद्धि है कि यही अन्नके द्वारा मनुष्यके जीवनकी रक्षा करनेवाला होनेसे साक्षात् आयु है, वह इस अपानवायुको लेकर ही है, जो प्राण आदि पाँच भेदोंमें विभक्त मुख्य प्राणका ही एक अंश है; इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राण ही मनुष्यका जीवन है॥१०॥
स ईक्षत कथं न्विदं मदृते स्यादिति स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति। स ईक्षत यदि वाचाभिव्याहृतं यदि प्राणेनाभिप्राणितं यदि चक्षुषा दृष्टं यदि श्रोत्रेण श्रुतं यदि त्वचा स्पृष्टं यदि मनसा ध्यातं यद्यपानेनाभ्यपानितं यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति॥११॥
व्याख्या- इस प्रकार जब लोक और लोकपालोंकी रचना हो गयी, उन सबके लिये आहार भी उत्पन्न हो गया तथा मनुष्य-शरीरधारी पुरुषने उस आहारको ग्रहण करना भी सीख लिया, तब उस सर्वस्रष्टा परमात्माने फिर विचार किया-'यह मनुष्यरूप पुरुष मेरे बिना कैसे रहेगा? यदि इस जीवात्माके साथ मेरा सहयोग नहीं रहेगा तो यह अकेला किस प्रकार टिक सकेगा? साथ ही यह भी विचार किया कि 'यदि मेरे सहयोगके बिना इस पुरुषने वाणीद्वारा इसीलिये तो भगवान्ने गीतामें कहा है कि समस्त भूतोंका जो कारण है, वह मैं हूँ। ऐसा कोई भी चराचर प्राणी नहीं है, जो मुझसे रहित हो (१०। ३९)।
बोलनेकी क्रिया कर ली, घ्राण इन्द्रियसे सूंघनेका काम कर लिया, प्राणोंसे वायुको भीतर ले जाने और बाहर छोड़नेकी क्रिया कर ली, नेत्रोंद्वारा देख लिया, श्रवणेन्द्रियद्वारा सुन लिया, त्वक्-इन्द्रियद्वारा स्पर्श कर लिया, मनके द्वारा मनन कर लिया, अपानद्वारा अन्न निगल लिया और यदि जननेन्द्रियद्वारा मूत्र और वीर्यका त्याग करनेकी क्रिया सम्पन्न कर ली तो फिर मेरा क्या उपयोग रह गया? भाव यह कि मेरे बिना इन सब इन्द्रियोंद्वारा कार्य सम्पन्न कर लेना इसके लिये असम्भव है! यह सोचकर परमात्माने विचार किया कि मैं इस मनुष्य शरीरमें पैर और मस्तक-इन दोमेंसे किस मार्गसे प्रविष्ट होऊँ॥११॥
स एतमेव सीमानं विदातया द्वारा प्रापद्यत। सैषा वितिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दनम्। तस्य त्रय आवसथास्त्रयः स्वप्नाः अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ इति॥१२॥
व्याख्या- परमात्मा इस मनुष्य-शरीरकी सीमा (मूर्धा) को अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रको चीरकर (उसमें छेद करके) इसके द्वारा उस सजीव मनुष्य-शरीरमें प्रविष्ट हो गये। वह यह द्वार विदृति (विदीर्ण किया हुआ द्वार) नामसे प्रसिद्ध है। वही यह विदृति नामका द्वार (ब्रह्मरन्ध्र) आनन्द देनेवाला अर्थात् आनन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है। परमेश्वरकी उपलब्धिके तीन स्थान हैं और स्वप्न भी तीन हैं। एक तो यह हृदयाकाश उनकी उपलब्धिका स्थान है। दूसरा विशुद्ध आकाशरूप परमधाम है-जिसको सत्यलोक, गोलोक, ब्रह्मलोक, साकेतलोक, कैलास आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है। तीसरा यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है तथा इस जगत्की जो स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूप तीन अवस्थाएँ हैं, वे ही इसके तीन स्वप्न हैं॥१२॥
स जातो भूतान्यभिव्यख्यत् किमिहान्यं वावदिषदिति। स एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत्। इदमदर्शमिती३॥१३॥
व्याख्या- मनुष्यरूपमें उत्पन्न हुए उस पुरुषने इस भौतिक जगत्की विचित्र रचनाको बड़े आश्चर्यपूर्वक चारों ओरसे देखा और मन-ही-मन इस प्रकार कहा, इस विचित्र जगत्की रचना करनेवाला यहाँ दूसरा कौन है? क्योंकि यह मेरी की हुई रचना तो है नहीं और कार्य होनेके कारण इसका कोई न-कोई कर्ता अवश्य होना चाहिये। इस प्रकार विचार करनेपर उस साधकने अपने हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान पुरुषको ही इस सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त परब्रह्मके रूपमें प्रत्यक्ष किया। तब वह आनन्दमें भरकर मन-ही-मन कहने लगा-'अहो! बड़े ही सौभाग्यकी बात है कि मैंने परब्रह्म परमात्माको देख लिया-साक्षात् कर लिया। इससे यह भाव प्रकट किया गया है कि इस जगत्की विचित्र रचनाको देखकर इसके कर्ता-धर्ता परमात्माकी सत्तामें विश्वास करके यदि मनुष्य उन्हें जानने और पानेको उत्सुक हो, उन्हींपर निर्भर होकर चेष्टा करे तो अवश्य ही उन्हें जान सकता है। परमात्माको जानने और पानेका काम इस मनुष्य-शरीरमें ही हो सकता है, दूसरे शरीरमें नहीं। अतः मनुष्यको अपने जीवनके अमूल्य समयका सदुपयोग करना चाहिये, उसे व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिये। इस अध्यायमें मानो परमात्माकी महिमाका और मनुष्य-शरीरके महत्त्वका दिग्दर्शन करानेके लिये ही सृष्टि-रचनाका वर्णन किया गया है॥१३॥
तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण। परोक्षप्रिया इव हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः॥१४॥
व्याख्या– परब्रह्म परमात्माको उस मनुष्य-शरीरमें उत्पन्न हुए पुरुषने पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्यक्ष कर लिया, इसी कारण परमात्माका नाम 'इदन्द्र' है। अर्थात् 'इदम्द्रः इसको मैंने देख लिया' इस व्युत्पत्तिके अनुसार उसका 'इदन्द्र' नाम है। इस प्रकार यद्यपि उस परमात्माका नाम 'इदन्द्र' ही है, फिर भी लोग इसे परोक्ष भाव से इन्द्र कहकर पुकारते हैं; क्योंकि देवता लोग मानो छिपाकर ही कुछ कहना पसंद करते हैं। 'परोक्षप्रिया इव हि देवा, इस अन्तिम वाक्यको दुबारा कहकर इस खण्डकी समाप्ति सूचित की गयी है॥१४॥
॥ तृतीय खण्ड समाप्त ॥३॥
॥प्रथम अध्याय समाप्त॥१॥
aitareya upanishad adhyay 2 & 3
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