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पतंजलि विभूतिपाद योग दर्शन विभूतिपाद सूत्र 14-18 - पतंजलि योग सूत्र के अनुसार योग के कितने अंग है ?

पतंजलि विभूतिपाद योग दर्शन विभूतिपाद सूत्र 14-18, पतंजलि योग सूत्र के अनुसार योग के कितने अंग है ?

yog darshan vibhutipaad sutra 14-18




सम्बन्ध- धर्म और धर्मीका विवेचन करनेके लिये धर्मीका स्वरूप बतलाते हैं


शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥ १४ ॥

व्याख्या- द्रव्यमें सदा विद्यमान रहनेवाली अनेकों शक्तियोंका नाम धर्म है और उसके आधारभूत द्रव्यका नाम धर्मी है । भाव यह है कि जिस कारणरूप पदार्थसे जो कुछ बन चुका है, जो बना हुआ है और जो बन सकता है; वे सब उसके धर्म हैं, वे एक धर्मीमें अनेक रहते हैं तथा अपने-अपने निमित्तोंके मिलनेपर प्रकट और शान्त होते रहते हैं। उनके तीन भेद इस प्रकार हैं

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(१) अव्यपदेश्य- जो धर्म धर्मीमें शक्तिरूपसे विद्यमान रहते हैं, व्यवहारमें आने लायक न होनेके कारण जिनका निर्देश नहीं किया जा सकता, वे 'अव्यपदेश्य' कहलाते हैं। इन्हींको अनागत या आनेवाले भी कहते हैं। जैसे जलमें बर्फ और मिट्टीमें बर्तन अपना व्यापार करनेके लिये प्रकट होनेसे पहले शक्तिरूपमें छिपे रहते हैं।


(२) उदित— जो धर्म पहले शक्तिरूपसे धर्मीमें छिपे हुए थे, वे जब अपना कार्य करनेके लिये प्रकट हो जाते हैं, तब ‘उदित' कहलाते हैं। इन्हींको 'वर्तमान' भी कहते हैं। जैसे जलमें शक्तिरूपसे विद्यमान बर्फका प्रकट होकर वर्तमानरूपमें आ जाना, मिट्टीमें शक्तिरूपसे विद्यमान बर्तनोंका प्रकट होकर वर्तमानरूपमें आ जाना।


(३) जो धर्म अपना व्यापार पूरा करके धर्मीमें विलीन हो जाते हैं, वे 'शान्त' कहलाते हैं, इन्हींको 'अतीत' भी कहते हैं। जैसे बर्फका गलकर जलमें विलीन हो जाना और घड़ेका फूटकर मिट्टीमें विलीन हो जाना। म धर्मोकी शान्त, उदित और अव्यपदेश्य-इन तीनों स्थितियोंमें ही धर्मी सदा ही अनुगत रहता है। किसी कालमें धर्मीके बिना धर्म नहीं रहते ॥ १४ ॥



सम्बन्ध- एक ही धर्मीके भिन्न-भिन्न अनेक धर्म-परिणाम कैसे होते हैं, यह बतलाते हैं


क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ॥ १५ ॥


व्याख्या- एक ही द्रव्यका किसी एक क्रमसे जो परिणाम होता है, दूसरे क्रमसे उससे भिन्न दूसरा ही परिणाम होता है। अन्य प्रकारके क्रमसे तीसरा ही परिणाम होता है। जैसे हमें रूईस वस्त्र बनाना है तो पहले रूईको धुनकर उसकी पूनी बनाकर चरखेपर कातकर उसका सूत बनाना पड़ेगा, फिर उस सूतका लम्बा ताना करेंगे, फिर उसे तानेमेंसे पार करके रोलपर चढ़ायेंगे, फिर 'वै' मेंसे पार करके उसके आधे तन्तुओंको ऊपर उठायेंगे, आधोंको नीचे ले जायँगे और बीचमें भरनीका सूत फेंककर उस धागेको यथास्थान बैठायेंगे, फिर ऊपरवाले धागोंको नीचे लायेंगे और नीचेवालोंको ऊपर ले जायँगे, इस तरह क्रमसे करते रहनेपर अन्तमें वस्त्ररूपमें रूईका परिणाम होगा।


पर यदि हमें उसी रूईसे दीपककी बत्ती बनानी है तो उसे कुछ फैलाकर थोड़ा बट दे देनेसे तुरंत बन जायगी और यदि कुएँ मेंसे जल निकालनेकी रस्सी बनानी है तो पहले सूत बनाकर उन धागोंको तीन या चार भागोंमें लम्बा करके बट लगानेसे रस्सी बन जायगी। इनमें भी जैसा वस्त्र या जैसी बत्ती या जिस प्रकारकी रस्सी बनानी है वैसे ही उनमें क्रमका भेद करना पड़ेगा। इसी तरह दूसरी वस्तुओंमें भी समझ लेना चाहिये।


इससे यह सिद्ध हो गया कि क्रममें परिवर्तन करनेसे एक ही धर्मी भिन्न-भिन्न नाम-रूपवाले धर्मीसे युक्त हो जाता है, उसके परिणामकी भिन्नताका कारण क्रमकी भिन्नता ही है, दूसरा कुछ नहीं। क्रमकी भिन्नता सहकारी कारणोंके सम्बन्धसे होती है। जैसे ठंडके सम्बन्धसे जलमें बर्फरूप धर्मके प्रकट होनेका क्रम चलता और गर्मीके संयोगसे स्टीम (भाप) बननेका क्रम आरम्भ हो जाता है ॥ १५॥ बार



सम्बन्ध- उक्त संयम किस ध्येय-वस्तुमें सिद्ध कर लेनेपर उससे क्या फल मिलता है, इसका वर्णन यहाँसे इस पादकी समाप्तिपर्यन्त किया गया है। इनको ही योगकी विभूति अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकारका महत्त्व कहते हैं। ऊपर तीन प्रकारके परिणामोंका वर्णन किया गया, अतः पहले इनमें संयम करनेका फल बतलाते हैं



परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥ १६ ॥


व्याख्या- धर्म-परिणाम, लक्षण-परिणाम और अवस्था-परिणाम इस प्रकार जिन तीन परिणामोंका पहले वर्णन किया गया है, उन तीनों परिणामोंमें संयम अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि कर लेनेसे योगीको उनका साक्षात्कार होकर भूत और भविष्यका ज्ञान हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जिस वर्तमान वस्तुके विषयमें योगी यह जानना चाहे कि इसका मूल कारण क्या है और यह किस ढंगसे बदलती हुई कितने कालमें वर्तमान रूपमें आयी है और भविष्यमें किस प्रकार बदलती हुई कितने कालमें किस प्रकार अपने कारणमें विलीन होगी? तो ये सब बातें उक्त तीनों परिणामोंमें संयम करनेसे जान सकता है ॥ १६॥

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सम्बन्ध- इसी प्रकार अब दूसरी विभूतियोंका वर्णन करते हैं


शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभाग संयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम् ॥ १७॥



व्याख्या- वस्तुके नाम, रूप और ज्ञान-यह तीनों यद्यपि परस्पर भिन्न हैं, जैसे घट यह शब्द मिट्टीसे बने हुए जिस पदार्थका संकेत करता है, उस पदार्थसे सर्वथा भिन्न वस्तु है। इसी प्रकार उस घटरूप पदार्थकी जो प्रतीति होती है, वह चित्तकी वृत्तिविशेष है। अतः वह भी घटरूप पदार्थसे सर्वथा भिन्न वस्तु है, क्योंकि शब्द वाणीका धर्म है, घटरूप पदार्थ मिट्टीका धर्म है और वृत्ति चित्तका धर्म है तथापि तीनोंका परस्पर अभ्यासके कारण मिश्रण हुआ रहता है। अतः जब योगी विचारद्वारा इनके विभागको समझकर उस विभागमें संयम कर लेता है, तब उसको समस्त प्राणियोंकी वाणीके अर्थका ज्ञान हो जाता है ॥ १७॥



संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥ १८॥


व्याख्या- प्राणी जो कुछ कर्म करता है एवं अपने इन्द्रियों और मन-बुद्धिद्वारा जो कुछ अनुभव करता है, वे सब उसके अन्तःकरणमें संस्काररूपमें संचित रहते हैं। उक्त संस्कार दो प्रकारके होते हैं-एक वासनारूप, जो कि स्मृतिके कारण हैं. दूसरे धर्माधर्मरूप जो कि जाति, आयु और भोगके कारण हैं, ये दोनों ही प्रकारके संस्कार अनेक जन्म-जन्मान्तरोंसे संगृहीत होते आ रहे हैं (योग० २ । १२, ४।८ से ११)। उन संस्कारोंमें संयम करके उनको प्रत्यक्ष कर लेनेसे योगीको पूर्वजन्मका ज्ञान हो जाता है। जैसे अपने पूर्व संस्कारोंके साक्षात्कारसे अपने पूर्वजन्मका ज्ञान होता है, उसी प्रकार दूसरेके संस्कारोंमें संयम करनेसे उसके पूर्वजन्मका भी ज्ञान हो सकता है ॥ १८॥


योग दर्शन सूत्र ०१ से ०८,

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