महाभारत काल मै कृषि उपयोगी संसाधन , कृषि विकास व संरक्षण और कृषि संबंधित पशु पालन और संरक्षण। वैदिक काल में कृषि
प्राचीन वैदिक काल से भी पहले कृषि के लिए हल आदि उपकरण प्रयोग किये जाते थे। वेदों में कृषि उपयोगी यंत्रों का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। यथा अथर्ववेद में हल तथा जुओं में लगे बैलों का वर्णन किया गया है और इसी में आगे हल को उत्तम फाल से युक्त, सुगमता से चलने वाला तथा जुताई हेतु उपयोगी उपकरण बताया गया है।
यहां 'हल' को कृषि उपयोगी यंत्र के रूप में उल्लेख किया गया है। 'हल' शब्द का अर्थ है – विलेखन करने वाला उपकरण। हल को लाङ्गल कहा जाता था। इसके अन्य उपकरण सीता (फाल इति), सीर, शुन - ईषा–युग-वरत्र-अष्ट्रा आदि होते हैं। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद में कृषि कार्य हेतु सीर, लाङ्गल, सीता (युग्म), वस्त्रा (रज्जु), अष्ट्रा (फाल) आदि का उल्लेख मिलता है।
वर्षाकाले तडागे तुसलिलं यस्य तिष्ठति ।
अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः।।
महा. भा. अनु. पर्व. 58.10-17
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तुन्वते पृथक् । धीरा देवेषुम्नयौ।। लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सोमसत्सरू । उद्दिवपतु गावविं प्रस्थावद् रथवाहनं पीबरी च प्रफळम् ।।
अथर्व. वे. 3.17.1-3
हल् विलेखने धातोः घञर्थे करणेक प्रत्ययाद हलम्।।
आप्टे. को. पृ. 1167
ऋ. वे. 4.57.4-9
महाभारत काल में भी कृषि का प्रमुख यंत्र हल (लाङ्गल) प्रचलित था। इस सन्दर्भ में महाभारत के शान्ति पर्व में जाजलि तथा तुलाधार के संवाद में हल द्वारा खेती करने का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार कुछ लोग खेती को अच्छा मानते है परन्तु यह वृत्ति अत्यन्त कठोर है। वह हल, जिसके मुख पर फाल जुड़ा हुआ है, पृथ्वी को पीड़ा देता है और इससे पृथ्वी के भीतर रहने वाले जीवों का भी वध हो जाता है तथा उसमें जुते बैल भी दुर्दशा को प्राप्त होते हैं।' यहां महाभारतकार ने स्पष्ट रूप से हल तथा अन्य उपकरणों का उल्लेख किया है।
अतः इस विवरण से अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में कृषि व्यवस्था अत्यन्त विकसित थी तथा हल, फाल आदि उपकरणों द्वारा कृषि की जाती थी जो उस काल के कृषि विज्ञान की विकसित दशा का परिचायक प्रतीत होता है।
महाभारत तथा कृषि संरक्षण
कृषि की उन्नति और समृद्धि के लिए कृषि संरक्षण बहुत ही आवश्यक है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार कृषि संरक्षण से ही कृषि की फसलों में वृद्धि सम्भव है। किसी भी राष्ट्र के लिए कृषि का संरक्षण प्रथम कर्तव्य है। ऐसा वर्णन कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र में मिलता है। मूलतः कृषि संरक्षण का कार्य प्रशासन के अन्तर्गत माना जाता है। कृषि संरक्षण की दृष्टि से कृषि विज्ञान द्वारा इसे निम्न भागों में विभक्त किया जा सकता है -
मृदा–संरक्षण – कृषि संरक्षण हेतु सर्वप्रथम मृदा (मिट्टी) का संरक्षण आवश्यक है। मिट्टी के संरक्षण के मुख्यतः तीन कारण होते हैं –
(1.) अनावृष्टि
(2.) अतिवृष्टि,
(3.) तीव्र वायु और प्रवाह ।
भूमि के ऊपर उर्वरक शक्ति से युक्त, उपजाऊ परत होती है जो अतिवृष्टि (अधिक वर्षा), तीव्र वायु आदि द्वारा बहाकर ले जायी जाती है
कृषि साध्विति मन्यन्ते सा च वृत्तिः सुदारूणा।।
तथैवानडुहो युक्तान् समवेक्षस्व जाजले
महा. भा. शान्ति पर्व 262.45-46
जिससे भूमि की उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती है। अतः सामान्यतः देखा गया है कि अधिक वर्षा से नलिका अपरदन होता है। ऐसा उल्लेख ऋतुसंहार में भी मिलता है।' इस सन्दर्भ में अग्निपुराण में अधिक वर्षा से कृषि को बहुत हानि होती है, ऐसा उल्लेख मिलता है। महाभारत के सभा पर्व में अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि से उत्पन्न भयानक उपद्रव का उल्लेख मिलता है। जिससे प्रतीत होता है कि अतिवृष्टि होने से कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिस कारण कृषि द्वारा फसल उत्पन्न नहीं होती है और जनता त्राहि-त्राहि करती है।
इस वर्णन में साङ्केतिक रूप में मृदा अपरदन का उल्लेख किया गया है। महाभारत काल में कृषक कृषि के संरक्षण की सभी विधियों से परिचित थे। वे भली-भांति जानते थे कि खेतों में उपजाऊ मिट्टी को बहने से रोकने के लिए मेड़ बनाना आवश्यक होता है तथा इससे मृदा संरक्षण सम्भव होता है। इस सन्दर्भ में आदि पर्व में उपाध्याय की आज्ञानुसार खेत की टूटी क्यारियों में मेड़ बांधने का उल्लेख मिलता है। मृदा संरक्षण के लिए सर्वोत्तम उपाय वृक्षारोपण भी स्वीकार करते हैं। इसी कारण अनुशासन पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रति वृक्षारोपण के महत्व का विस्तृत वर्णन किया गया है। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारतकार यह भलीभांति जानते थे कि वृक्ष अपनी जड़ों द्वारा मिट्टी को जकड़े रहते हैं जिससे उपजाऊ मिट्टी का अपरदन नहीं होता और भूमि उपजाऊ
दण्डविष्टिकराबाधैः रक्षेदुपहतां कृषिम्। स्तेनव्यालविषग्राहैर्व्याधिभिश्च पशुव्रजान् ।।
अर्थ. शा. 2.1.18 2
अग्नि. पुरा. 163.19 3 अवर्ष चातिवर्ष च व्याधिपावकमूर्छनम् ।
सवमेतत् तदा नासीद् धर्मनित्ये युधिष्ठिरे।।।
महा. भा. सभा. पर्व. 33.5
महा. भा. आदि. पर्व. 3.24
स्थावराणां च भूतानां जातयः षट् प्रकीर्तिताः ।
तरयेद् वृक्षरोपी च तस्माद वृक्षांश्च रोपयेत् ।।
महा. भा. अनु. पर्व. 58.23-27
बनी रहती है। मनुस्मृति में भी वृक्षारोपण को मृदासंरक्षण के लिए अनिवार्य बताया गया है।
इस विवरण से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में कृषि संरक्षण हेतु मृदा संरक्षण को महत्वपूर्ण माना जाता था तथा उस काल के लोग वृक्षारोपण के महत्व से भली-भाँति परिचित थे।
क्षेत्र संरक्षण – कृषि विज्ञान के अनुसार उत्तम कृषि के लिए खेत का संरक्षण किया जाना आवश्यक है। यहां क्षेत्र संरक्षण से तात्पर्य – खेत की पशुओं-पक्षियों आदि से सुरक्षा, प्रदूषण से सुरक्षा तथा चोरी आदि सुरक्षा से है। ने महाभारत में अनेक स्थानों पर क्षेत्र संरक्षण का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में भीष्म द्वारा आयु की वृद्धि तथा क्षय करने वाले कर्मों का उल्लेख युधिष्ठिर के प्रति किया गया है जिसमें प्रकारान्तर से खेत के संरक्षण का उल्लेख मिलता है इस वर्णन में भीष्म का कथन है कि बोये हुये खेत में मल-मूत्र नहीं करना चाहिए तथा बढ़ी हुई खेती में भी मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए।
इस कथन से खेत को प्रदूषण से बचाने का साङ्केतिक रूप से उल्लेख मिलता है। इस सन्दर्भ में महाभारत के सभा पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रति हैहयराज अर्जुन के शासन प्रबन्ध के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि वे (अर्जुन) बकरियों, गौओं आदि पशुओं तथा खेतों का संरक्षक थे। इससे प्रतीत होता है कि महाभारत
सीमावृक्षांश्च कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिं शुकान् । शरान्कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति ।।
मनु. स्मृ. 8.246-247
नोत्सृजेत पुरीषं च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिक द्विचारामेद् यथान्यायं हृदगतं तु पिबन्नपः ।।
महा. भा. अनु. पर्व. 104.54
स एव राष्ट्रपालोऽभूत् स्त्रीपालोऽभवदुर्जनः। इदं तु कार्तवीर्यस्य बभूवासदृशं जनैः।।
महा. भा. सभा. पर्व. 38 पृ. 792
काल में कृषि से जुड़े पशुओं तथा खेतों की सुरक्षा अत्यधिक आवश्यक मानी जाती थी।
इस सन्दर्भ में कृषि पराशर का कथन है कि देखभाल की गयी खेती सोना उत्पन्न करती है तथा बिना देखभाल की वही कृषि दैन्य (निर्धनता) देने वाली होती है।' इस समस्त विवरण से यह प्रतीत होता है कि महर्षि व्यास क्षेत्र संरक्षण के विविध उपायों से परिचित थे।
बीज संरक्षण – समस्त फसलों का मूलभूत उपादान कारण बीज है। अतः कृषि शास्त्रों तथा कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार बीज संग्रह तथा बीज संरक्षण अत्यावश्यक है। बीज से बीज की उत्पत्ति होती है अतः इसका संरक्षण आवश्यक है ऐसा उल्लेख महाभारत के शान्ति पर्व के तीन सौ पांचवें अध्याय में मिलता है।
गो संरक्षण - प्राचीन वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक भारतीय कृषि पद्धति गौ पर आश्रित है। गोपालन, गोसंरक्षण विषयक नियम तथा नीति आदि का उल्लेख प्राचीन धर्मग्रन्थों में मिलता है।
महाभारत में गोरक्षा, गोशाला निर्माण, गो-चिकित्सा आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। महाभारतकार ने सभा पर्व में अर्जुन को गौओं का पालक' कहा है। इसी प्रकार जाजलि तथा तुलाधार संवाद में कृषि तथा पशुओं को वैश्य धर्म वाले लोगों के जीवन का आधार बताया गया है। इसी प्रकार भीष्म पर्व में भी वैश्यों के स्वाभाविक कर्मों में भी गोपालन का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता
फलत्यवेक्षिता स्वर्ण दैन्यं सैवानवेक्षिता। कृषिः कृषि पुराणज्ञ इत्युवाच पराशरः ।।
कृषि परा. (कृषि खण्ड) 1 पृ. 36 2 महा. भा. शान्तिपर्व 305.21 3 महा. भा. सभा पर्व 38 पृ. 792
कृष्या ह्यन्नं प्रभवति ततस्त्वमपि जीवसि। पशुभिश्चौषधीभिश्च मा जीवन्ति वणिज ।।
महा. भा. शान्ति पर्व. 263.2 5
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
महा. भा. भीष्म. पर्व. 42-44
है कि कृषि के सन्दर्भ में गो संरक्षण अनिवार्य है। इस तथ्य से महर्षि व्यास भली-भांति परिचित थे।
प्रशासन द्वारा संरक्षण – कृषि साधनों, फसलों आदि का संरक्षण शासकीय संरक्षण से ही सफल होते हैं। फलतः कृषि के प्रति प्रशासन की संरक्षणशील नीति राष्ट्रीय कृषि संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्राचीनकाल से ही राजा का कर्तव्य कृषि की समृद्धि, विकास तथा सुरक्षा माना गया है। महाभारतकार ने भी अनेक स्थानों पर प्रशासन को कृषि संरक्षण हेतु जिम्मेदार माना है। इस सन्दर्भ में राजा के होने से लाभों का उल्लेख शान्ति पर्व में बृहस्पति द्वारा वसुमना के प्रति किया गया है जिसमें राजा द्वारा कृषि संरक्षण करने की बात कही गयी है। इसी प्रकार शान्ति पर्व में भीष्म द्वारा राजा के कर्तव्यों के वर्णन में प्रशासन संरक्षण की झलक मिलती है।
इस वर्णन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारतकाल में कृषिसंरक्षण हेतु नाना प्रकार के उपायों का प्रयोग किया जाता था जिससे उस काल में कृषि व्यवस्था उन्नत दशा में पहुंच गयी थी।
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