महाभारत काल मै कृषि में ज्योतिषीय प्रभाव, समय निर्धारण और उपयोगी संवर्धन।
कृषि विज्ञान के अनुसार कृषि कर्म का मूल वृष्टि है। वृष्टि द्वारा ही कृषि योग्य भूमि शस्य उत्पादन में सफल होती है। कृषि पर वर्षा के साथ-साथ आकाशीय पिण्डों, ग्रह-नक्षत्रों, सूर्य, चन्द्रमा आदि का भी प्रभाव पड़ता है। कृषि वैज्ञानिक तथा ज्योतिष के ज्ञाता भी नक्षत्र राशि आदि को कृषि के लिये प्रभावशाली बताते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में कृषि पर ज्योतिषीय प्रभाव का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है, यथा – वृहत्संहिता के अनुसार, कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के बाद वर्षागर्भ mahabharat krishi - 2
वार्तामूले ह्ययं लोकस्रय्या वैधार्यते सदा। तत् सर्व वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमिपः ।।
महा. भा. शान्ति पर्व. 68.35
कच्चित् कृषिकरा राष्ट्रं न जहत्यति पीडिताः |
ये वहन्ति धुरं राज्ञां ते भरन्तीततरानपि।।
महा. भा. शान्ति पर्व 89.24
काल में परीक्षण करना चाहिए क्योंकि सम्यक् गर्भ के सम्भव होने से फसल उत्पन्न होती है। महाभारत में भी अनेक स्थानों पर ज्योतिष से प्रभावित कृषि का उल्लेख मिलता है। इस सन्दर्भ में चन्द्रमा के द्वारा कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन वैशम्पायन द्वारा जनमेजय के प्रति किया गया है। जिसके अनुसार चन्द्रमा के क्षय होने पर औषधियां, लता, भांति-भांति के बीज आदि भी क्षीण होने लगे थे।
महाभारत काल में कृषि पर ज्योतिषीय प्रभाव को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था। इस सन्दर्भ में व्यास ऋषि द्वारा संजय से अमङ्गल सूचक, उत्पातों तथा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार, मङ्गल ग्रह मघानक्षत्र में स्थित है तथा बार-बार वक्र होकर ब्रह्मराशि (बृहस्पति से युक्त) श्रवण नक्षत्र को पूर्ण रूप से आवृत करके स्थित है जिसका प्रभाव कृषि पर अनुकूल पड़ा है जिससे पृथ्वी पर सब प्रकार के अनाज पौधे बढ़ गये हैं, शस्य की मालाओं से अलंकृत है,
जौ में पांच-पांच तथा जड़हन धान में सौ-सौ बालियां लग गयी हैं। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि कृषि पर ज्योतिष का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अतः यह कहा जा सकता है कि महाभारतकाल में कृषि, काल तथा ग्रह-नक्षत्रों पर आधारित थी। जिसे आधुनिक वैज्ञानिक तथा ज्योतिषी भी स्वीकार करते हैं। अतः इस समस्त विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में कृषि व्यवस्था अत्यन्त विकसित थी तथा वैज्ञानिक तकनीकियों से सुव्यवस्थित भी थी।
शुक्ल पक्षमतिक्रम्य कार्तिकस्य विचारयेत् । गभोणा सम्भवं सम्यक् सस्यसम्पत्ति कारकम् ।।
वहत् सं. (गर्भलक्षणाध्याय)
क्षीयमाणे ततः सोमे ओषध्यो न प्रजज्ञिरे।।
वीरूदोषधयश्चैव बीजानि विविधानि च ।।
महा. भा. शल्य. पर्व. 35.64-71
वक्रानुवकं कृत्वा च श्रवणं पावकप्रभः । ब्रह्मराशिं समावृत्य लोहिताङ्गे व्यवस्थितः ।। सर्वसस्यपरिच्छन्ना पृथिवी सस्यमालिनी। पञ्चशीर्षा यवाश्चापि शतशीर्षाश्चशालयः ।। महा. भा. भीष्म पर्व. 3.18-19
MAHABHARAT MAI KRISHI VIGYAAN
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