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upnishad उपनिषद का मूल विषय ब्रह्मविद्या


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

शांति मंत्र
उपनिषद+का+मूल+विषय+ब्रह्मविद्या

 

उपनिषदों का मूल विषय ब्रह्मविद्या को माना गया है। ब्रह्मविद्या का क्षेत्र बड़ा व्यापक है।

विद्वानों ने विभिन्न उपनिषदों में वर्णित विषयों के आधार पर ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत ३२ विद्याओं को समाविष्ट माना है। ये विद्याएँ क्रमश: स्पष्ट करती हैं कि


(१) परब्रह्म अपने सङ्कल्पानुसार सबके कारण हैं,

(२) वे कल्याणगुणाकर वैभवसम्पत्र आनन्दमय हैं,

(३) उनका रूप दिव्य है,

(४) उपाधि रहित होकर वे सबके प्रकाशक हैं,

(५) वे चराचर के प्राण हैं,

(६) चे प्रकाशमान हैं,

(७) वे इन्द्र, प्राण आदि चेतनाचेतनों के आत्मा हैं,

(८) प्रत्येक पदार्थ की सत्ता, स्थिति एवं यन्त्र उनके अधीन हैं,

(९) समस्त संसार को लीन कर लेने की सामर्थ्य उनमें है,

(१०) उनकी नित्य स्थिति नेत्र में है,

(११) जगत् उनका शरीर है,

(१२) उनके विराट् रूप की कल्पना में अग्नि आदि अङ्ग बनकर रहते हैं,

(१३) स्वर्लोक,आदित्य आदि के अङ्गी बने हुए बे वैश्वानर हैं,

(१४) वे अनन्त ऐश्वर्य सम्पन्न हैं,

(१५) वे नियन्ता हैं,

(१६) वे मुक्त पुरुषों के भोग्य हैं,

(१७) वे सबके आधार हैं,

(१८) वे अन्तर्यामी रूप से सबके हृदय में विराजमान हैं,

(१९) वेसभी देवताओं के उपास्य है,

(२०) वे वसु, रुद्र, आदित्य, मरुत् और साभ्यों के आत्मा के रूप में उपास्य हैं,

(२१) अधिकारानुसार वे सभी के उपासनीय हैं,

(२२)वेप्रकृतितत्त्व के नियन्ता हैं,

(२३) समस्त जगत् उनका कार्य है,

(२४) उनका साक्षात्कार कर लेना मोक्ष का साधन है,

(२५) ब्रह्मा, रुद्र आदि-आदि देवताओं के अन्तर्यामी होने के कारण उन-उन देवताओं की उपासना के द्वारा वे प्राप्त होते हैं,

(२६) संसार के बन्धन से मुक्ति उपनिषद् की अपनी शैली अद्भुत है।

उपनिषदों का सामान्य झुकाव किस ओर है ?

गूढ़ रहस्यों को समझने की तीव्र उत्कण्ठा अनुभूति की गहन क्षमता तथाअभिव्यक्ति की सहजता,

का दर्शन जगह-जगह होता ही रहता है। कठोपनिषद् में नचिकेता अपनी जिज्ञासा को लेकर यम के सामने इतने अविचल भाव से डटे रहते हैं कि यम को द्रवित होना ही पड़ता है। प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जन सामान्य के लिए सुलभ उपमाओं के माध्यम से व्यक्त करने का बड़ा सुन्दर प्रयास किया गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के १.४ में विश्व व्यवस्था को एक विशिष्ट पहिये की उपमा से समझाने का प्रयास किया गया है, तो १.५ में विश्व के जीवन प्रवाह को एक नदी के प्रसंग से व्यक्त करने का कौशल दिखाया गया है। ब्राह्मी चेतना किस प्रकार विभिन्न चरणों को पूरा करती हुई 'जीव' रूप में व्यक्त होती है, यह तथ्य मात्र विवेचनात्मक ढंग से समझना-समझाना बड़ा दुष्कर है; किन्तु छान्दोग्योपनिषद् (५.४-८) में ऋषि उसे क्रमश: पाँच प्रकार की अग्नियों में पाँच आहुतियों के उदाहरण से बहुत सहज रूप से समझाते हैं। प्रत्येक अग्नि में एक हव्य की आहुति होती है, उससे नये चरण में पदार्थ की उत्पत्ति होती है। उपनिषदों में कर्मकाण्ड का तथा उनकी फलश्रुतियों का उल्लेख भी जहाँ-तहाँ मिलता है; लेकिन वे वहीं तक सीमित नहीं रह जाते। कर्मकाण्ड के स्थूल स्वरूप को भेदकर उसके मर्म तक पहुँचते हैं, वे सामगान की व्याख्या करते हैं,


वाल्मिकी रामायण,

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