सम्बन्ध-उक्त दृश्यके भेदोंका वर्णन अपने ग्रन्थकी परिभाषामें करते हैं
yog darshan sadhanpaad sutra 19-26
साधानपाद योग दर्शन सूत्र १९ से २६ संस्कृत हिन्दी अनुवाद
विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ १९॥
व्याख्या- (१) विशेष-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पाँच स्थूल भूत तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मनः—इस प्रकार सब मिलकर सोलहोंका नाम 'विशेष' है। गुणोंके विशेष धर्मोकी अभिव्यक्ति (प्रकटता) इन्हींसे होती है, इसलिये इनको विशेष कहते हैं। सांख्यकारिकामें इनका नाम विकार रखा है (सां. का० ३).
(२) अविशेष-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच तन्मात्राएँ हैं, इन्हींको सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं, क्योंकि ये स्थूल पञ्च महाभूतोंके कारण हैं तथा छठा अहंकार जो कि मन और इन्द्रियोंका कारण है, इन छहोंका नाम ‘अविशेष' है। इनका स्वरूप इन्द्रियगोचर नहीं है, इसलिये इनको 'अविशेष' कहते हैं।
(३) लिङ्गमात्र- उपर्युक्त बाईस तत्त्वोंका कारणभूत जो महत्तत्त्व है, जिसका वर्णन उपनिषदोंमें और गीतामें बुद्धिके नामसे किया गया है, (कठ० १।३ । १०; गीता १३ । ५) उसका नाम 'लिङ्गमात्र' है। इसकी उपलब्धि केवल सत्तामात्रसे ही होती है, इस कारण इसको 'लिङ्गमात्र' कहते हैं।
(४) अलिङ्ग- मूल प्रकृति, (सां० का?). जो, कि तीनों गुणोंकी साम्यावस्था मानी गयी है, महत्तत्त्व जिसका पहला परिणाम (कार्य) है, उपनिषद् और गीतामें जिसका वर्णन अव्यक्त नामसे किया गया है (कठ० १।३ । ११; गीता १३ । ५) उसका नाम 'अलिङ्ग' है । साम्यावस्थाको प्राप्त गुणोंके स्वरूपकी अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिये प्रकृतिको चिह्नरहित (अव्यक्त) कहते हैं।
इस प्रकार चार अवस्थाओंमें विद्यमान रहनेवाले ये सत्त्वादि गुण ही दृश्य नामसे कहे गये हैं ॥ १९ ॥
सम्बन्ध-अब द्रष्टाके स्वरूपका वर्णन करते हैं
द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥२०॥
व्याख्या- केवल चेतनमात्र ही जिसका स्वरूप है, ऐसा आत्मतत्त्व स्वरूपसे सर्वथा शुद्ध, निर्विकार है तो भी बुद्धिके सम्बन्धसे बुद्धिवृत्तिके अनुरूप देखनेवाला होनेसे 'द्रष्टा' कहलाता है। वास्तवमें द्रष्टा पुरुष (आत्मतत्त्व) सर्वथा शुद्ध, निर्विकार, कूटस्थ, असङ्ग है तथापि इसका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ अनादिसिद्ध अविद्यासे माना जाता है। जबतक उस अविद्याके नाशद्वारा यह प्रकृतिसे अलग होकर अपने असली स्वरूपमें स्थित नहीं हो जाता तबतक बुद्धिके साथ एकताको प्राप्त हुआ-सा बुद्धिकी वृत्तियोंको देखता रहता है और जबतक उनको देखता है, तभीतक इसकी 'द्रष्टा' संज्ञा है। दृश्यका सम्बन्ध न रहनेपर द्रष्टा किसका? फिर तो यह केवल चेतनमात्र, सर्वथा शुद्ध और निर्विकार है ही ॥ २० ॥
सम्बन्ध-दृश्य और द्रष्टाके स्वरूपका वर्णन करनेके बाद अब दृश्यके स्वरूपकी सार्थकताका प्रतिपादन करते हैं
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २१॥
व्याख्या- उक्त द्रष्टाको अपने दर्शनद्वारा भोग प्रदान करनेके लिये और द्रष्टाके निज स्वरूपका दर्शन कराकर अपवर्ग (मुक्ति) प्रदान करनेके लिये इस प्रकार पुरुषका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये ही दृश्य है। इसी में उसके होनेकी सार्थकता है। अठारहवें सूत्रमें दृश्यके लक्षणोंका वर्णन करते समय भी यही बात कही गयी है ।। २१ ।
सम्बन्ध-पुरुषको अपवर्ग प्रदान कर देनेके बाद प्रकृतिका कोई कार्य शेष नहीं रहता, फिर उसका बना रहना निरर्थक है; अतः उसका अभाव हो जाना चाहिये इसपर कहते हैं
कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२ ॥
व्याख्या- प्रकृतिका प्रयोजन किसी एक ही पुरुषके लिये भोग और अपवर्ग प्रदान करना नहीं है, वह तो सभी पुरुषोंके लिये समान है। अतः जिसका कार्य वह कर चुकी, उस कृतार्थ-मुक्त पुरुषके लिये उसकी आवश्यकता न रहनेके कारण यद्यपि वह उसके लिये नष्ट हो जाती है, तो भी दूसरे सब जीवोंको भोग और अपवर्ग प्रदान करना तो शेष है ही। इसलिये उसका सर्वथा नाश नहीं होता, वह विद्यमान रहती है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि प्रकृति परिणामी होनेपर भी अनादि और नित्य है। यहाँ जो मुक्त पुरुषके लिये उसका नष्ट होना बतलाया गया है, वह भी अदृश्य होना ही .. बतलाया गया है; क्योंकि योगके सिद्धान्तमें किसी भी वस्तुका सर्वथा अभाव नहीं माना गया है ।। २२ ॥
सम्बन्ध-अब संयोगके स्वरूपका वर्णन करते हैं
स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥२३॥
व्याख्या- दृश्यका स्वरूप द्रष्टाके ही लिये है, यह बात पहले कह आये हैं, इसी भावको लेकर इस सूत्रमें पुरुषको प्रकृतिका स्वामी बतलाया है
और प्रकृतिको पुरुषका 'स्व' अर्थात् अपना यानी अधिकृत पदार्थ कहा है। उस प्रकृतिके साथ पुरुषका सम्बन्ध उन दोनोंके स्वरूपको जाननेके लिये ही है, अतः उस दर्शन (ज्ञान) शक्तिसे जबतक मनुष्य इस प्रकृतिके नाना रूपोंको देखता रहता है, तबतक तो भोगोंको भोगता रहता है। जब इनके : दर्शनसे विरक्त होकर अपने स्वरूप-दर्शनकी ओर झाँकता है, तब स्वरूपका दर्शन हो जाता. है (योग० ३ । ३५) । फिर संयोगकी कोई आवश्यकता न रहनेसे उसका अभाव हो जाता है । यही पुरुषकी कैवल्य' अवस्था है (योग०३ । ३४) ॥ २३ ।।
सम्बन्ध-अब उक्त संयोगका कारण बतलाते हैं
तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥
व्याख्या- सर्वथा निर्विकार असङ्ग चेतन पुरुषका जो यह जड प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है यह अनादिसिद्ध अविद्यासे ही है, वास्तवमें नहीं है। यहाँ अविद्या विपर्ययवृत्तिका नाम नहीं है, किंतु अपने स्वरूपके अनादिसिद्ध अज्ञानका नाम अविद्या है। इसीलिये अपने स्वरूपके ज्ञानसे इसका नाश हो जाता है और उसके बाद प्रयोजन न रहनेपर वह ज्ञान भी शान्त हो जाता है। यही पुरुषका 'कैवल्य' है ।। २४ ॥
सम्बन्ध-अब कारणसहित संयोगके अभावसे सिद्ध होनेवाले सर्वथा दुःखनाशरूप ‘हान'का वर्णन करते हैं
तदभावात्संयोगाभावो हानं तदृशेः कैवल्यम् ॥ २५ ॥
व्याख्या- जब आत्मदर्शनरूप ज्ञानसे अविद्याका यानी अज्ञानका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब अज्ञानजनित संयोगका भी अपने-आप अभाव हो जाता है, फिर पुरुषका प्रकृतिसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता और उसके जन्म-मरण आदि सम्पूर्ण दुःखोंका सदाके लिये अत्यन्त अभाव हो जाता है तथा पुरुष अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है—यही उसका कैवल्य अर्थात् सर्वथा अकेलापन है ॥२५॥
सम्बन्ध-अब उक्त दुःखोंके अत्यन्त अभावरूप 'हान'का उपाय बतलाते हैं
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥२६॥
व्याख्या- प्रकृति तथा उसके कार्य-बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियाँ और शरीर-इन सबके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान हो जानेसे तथा आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न और असङ्ग है, आत्माका इनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, इस प्रकार पुरुषके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो जानेसे जो प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका अलग-अलग यथार्थ ज्ञान होता है, इसीका नाम 'विवेकज्ञान' है (योग ३। ५४) । उस समय चित्त विवेकज्ञानमें निमग्न और कैवल्यके अभिमुख रहता है। यह ज्ञान जब समाधिकी निर्मलता-स्वच्छता होनेपर पूर्ण और निश्चल हो जाता है, उसमें किसी प्रकारका भी मल नहीं रहता (योग) ४ । ३१), तब वह अविप्लव विवेकज्ञान कहलाता है। ऐसा विवेकज्ञान ही समस्त दुःखोंके अत्यन्त अभावरूप मुक्तिका उपाय है। इससे संसारके बीज अविद्यादि क्लेशोंका और समस्त कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जाता है (योग ४। ३०)।
उसके बाद चित्त अपने आश्रयरूप-महत्तत्त्व आदिके सहित अपने कारणमें विलीन हो जाता है तथा प्रकृतिका जो स्वाभाविक परिणाम-क्रम है, वह उसके लिये बंद हो जाता है
(योो ॥२६॥
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