साधानापाद। योग दर्शन सूत्र १४ से १८ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित सम्बन्ध-वे जाति, आयु और भोगरूप परिणाम किस प्रकारके होते हैं, यह बतलाते हैं,ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ १४॥
व्याख्या- जो जन्म पुण्यकर्मका परिणाम है, वह सुखदायक होता है और जो पापकर्मका परिणाम है, वह दुःखदायक होता है। इसी प्रकार आयुका जितना समय शुभकर्मका परिणाम है, उतना समय सुखदायक होता है और जितना पापकर्मका परिणाम है, उतना दुःखदायक होता है। वैसे ही जो-जो भोग अर्थात् सांसारिक मनुष्योंके, अन्य प्राणियोंके पदार्थोके और क्रिया एवं परिस्थिति आदिके संयोग-वियोग पुण्यकर्मके परिणाम होते हैं, वे हर्षप्रद होते हैं और जो पापकर्मके परिणाम होते हैं, वे शोकप्रद होते हैं ॥ १४ ॥
सम्बन्ध–यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि यदि यही बात है तब तो जिसका परिणाम केवल दुःखप्रद फल (जन्म, आयु और भोग) हैं ऐसे कर्माशयका ही उसके मूलसहित नाश करना उचित है। उसके साथ सुखप्रद कर्माशयका नाश करनेकी बात क्यों कही? इसपर कहते हैं
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ॥१५॥
व्याख्या-(१) परिणामदुःख– जो ‘कर्मविपाक' भोगकालमें स्थूल दृष्टिसे सुखप्रद प्रतीत होता है, उसका भी परिणाम (नतीजा) दुःख ही है। जैसे स्त्रीप्रसङ्गके समय मनुष्यको सुख भासता है; परंतु उसका परिणाम बल, वीर्य, तेज, स्मृति आदिका ह्रास प्रत्यक्ष देखने में आता है, ऐसे ही दूसरे भोगोंमें भी समझ लेना चाहिये । व भोगोंको भोगते-भोगते मनुष्य थक जाता है, उन्हें भोगनेकी शक्ति उसमें नहीं रहती, परंतु तृष्णा बनी रहती है, इससे वह भोगरूप सुख भी दुःख ही है। गीतामें भी कहा है
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥
(१८ । ३८) 'जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है, वह यद्यपि भोगकालमें अमृतके सदृश भासता है; परंतु परिणाममें विषके सदृश है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।' यह भोगके अन्तमें अनुभव होनेवाला दुःख भी परिणाम-दुःखकी ही गणनामें है। इन्द्रियों और पदार्थोंके सम्बन्धसे जब मनुष्यको किसी भी प्रकारके भोगमें सुखकी प्रतीति होती है, तब उसमें राग-आसक्ति अवश्य हो जाती है। इसलिये वह सुख रागरूप क्लेशसे मिला हुआ है। आसक्तिवश मनुष्य उस भोगकी प्राप्तिके साधनरूप अच्छे-बुरे कर्मोंका आरम्भ भी करेगा ही। भोग्यवस्तुओंकी प्राप्तिमें असमर्थ होनेसे या विघ्न आनेपर द्वेष होना भी अवश्यम्भावी है। इसके सिवा, प्राणियोंकी हिंसाके बिना भोगकी सिद्धि भी नहीं होती। अतः राग, द्वेष और हिंसादिका परिणाम अवश्य ही दुःख है। यह भी परिणाम-दुःखता है।
(२) तापदुःख-सभी प्रकारके भोगरूप सुख विनाशशील हैं; उनसे वियोग होना निश्चित है, अतः भोगकालमें उनके विनाशकी सम्भावनासे भयके कारण तापदुःख बना रहता है। इसी तरह मनुष्यको जो सुखकारक भोग प्राप्त होते हैं वे सातिशय ही होते हैं, अर्थात् उसे जो कुछ प्राप्त है, उससे बढ़कर दूसरोंको भी प्राप्त है यह देखकर वह ईर्ष्यासे जलता रहता है। यह भी तापदुःख है। तथा भोगकी अपूर्णतासे भी भोगकालमें संताप बना रहता है, यह भी तापदुःख है।
(३) संस्कारदुःख- जिन-जिन भोगोंमें मनुष्यको सुखका अनुभव होता है, उस अनुभवके संस्कार उसके हृदयमें जम जाते हैं। जब उन भोग सामग्रियोंसे उसका वियोग हो जाता है, तब वे संस्कार पहलेके सुखभोगकी स्मृतिद्वारा महान् दुःखके हेतु हो जाते हैं। देखनेमें भी आता है कि जब किसी मनुष्यकी स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि भोगसामग्री नष्ट हो जाती है, तब वह उनको याद कर-करके रोता रहता है कि मेरी स्त्री मुझे अमुक-अमुक प्रकारसे । सुख देती थी, मेरे पास इतना धन था, मैं अपने धनसे स्वयं सुख भोगता था और लोगोंको सुख पहुँचाता था, आज मेरी यह दशा है कि मैं भिखारी होकर लोगोंसे सहायता माँगता फिरता हूँ-इत्यादि । इसके सिवा, वे भोग-संस्कार, भोगासक्तिकी वृद्धिमें कारण होनेसे जन्मान्तरमें भी दुःखके हेतु हैं।
(४) गुणवृत्तिविरोध- गुणोंके कार्यका नाम गुणवृत्ति है, गुणोंके कार्यमें परस्पर अत्यन्त विरोध है। जैसे सत्त्वगुणका कार्य प्रकाश, ज्ञान और सुख है, तो तमोगुणका कार्य अन्धकार, अज्ञान और दुःख है। इस प्रकार इनके कार्योंमें विरोध होनेके कारण दुविधा बनी रहती है; सुख-भोगकालमें भी शान्ति नहीं मिलती; क्योंकि तीनों गुण एक साथ रहनेवाले हैं। सुखके अनुभवकालमें सत्त्वगुणकी प्रधानता रहते हुए भी रजोगुण और तमोगुणका अभाव नहीं हो जाता, अतः उस समय भी दुःख और शोक विद्यमान रहते हैं; इसलिये भी वह दुःख ही है। जैसे ध्यानकालमें और सत्सङ्ग करते समय सत्त्वगुणकी प्रधानता रहती है, अतः सात्त्विक सुख होता है, परंतु वहाँ भी सांसारिक स्फुरणा और तन्द्रा उस सुखमें विघ्न कर देते हैं ऐसे ही अन्य कामोंमें भी समझ लेना चाहिये।
उपर्युक्त परिणामदुःख, तापदुःख और संस्कारदुःख तथा गुणवृत्तियोंके विरोधसे होनेवाले दुःखको विचारद्वारा विवेकी पुरुष समझता है। इस कारण उसकी दृष्टिमें सभी ‘कर्मविपाक' दुःखरूप ही हैं अर्थात् साधारण मनुष्य समुदाय जिन भोगोंको सुखरूप समझता है, विवेकीके लिये वे भी दुःख ही हैं॥ १५॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त वर्णनसे यह सिद्ध हो गया है कि जन्म, आयु और भोगरूप यह बात गीताके पाँचवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें इस प्रकार कही गयी है
भगवद्गीता ५/२२ से
अर्थात् इन्द्रिय और विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके ही कारण हैं तथा सभी आदि और अन्तवाले हैं, अतः विवेकी मनुष्य उनमें नहीं रमता। सभी कर्म-विपाक दुःखरूप हैं; इसलिये उनका मूलसहित उच्छेद करना मनुष्यका कर्तव्य है। अतः अब उनको त्याज्य (नाश करनेयोग्य) बतलाकर उनसे मुक्ति पानेका उपाय बतलाते हुए अगला प्रकरण आरम्भ करते हैं
हेयं दुःखमनागतम् ॥ १६ ॥
व्याख्या- वर्तमान जन्मके पहले जो अनेक योनियोंमें दुःख भोगे जा चुके, वे तो अपने-आप समाप्त हो गये, उनके विषयमें कोई विचार नहीं करना है। तथा जो वर्तमान हैं वे भी भोग देकर दूसरे क्षणमें अपने-आप लुप्त हो जायँगे, उनके लिये भी उपायकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु जो दुःख अभीतक प्राप्त नहीं हुए हैं, भविष्यमें होनेवाले हैं, उनका नाश उपायद्वारा अवश्य-कर्तव्य है; इसलिये उन्हींको 'हेय' बतलाया गया है ॥ १६॥
सम्बन्ध- जिसका नाश करना हो, उसके मूल कारणको जाननेकी आवश्यकता है; क्योंकि मूल कारणके नाशसे ही उसका पूर्णतया नाश हो सकता है; नहीं तो वह पुनः उत्पन्न हो सकता हैअतः उक्त 'हेय'का हेतु (कारण) बतलाते हैं।
द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥
व्याख्या- ऊपर जो नाश करनेयोग्य आनेवाले दुःख बतलाये गये हैं, उनका मूल कारण द्रष्टा और दृश्यका अर्थात् पुरुष और प्रकृतिका संयोग यानी' जड-चेतनकी ग्रन्थि है। अतः इस संयोगका नाश कर देनेसे मनुष्य सर्वथा . दुःखोंसे निवृत्त हो सकता है ॥ १७ ॥
सम्बन्ध- पूर्व सूत्रमें द्रष्टा, दृश्य और उनका संयोग-इन तीनके नाम आये हैं, उनमेंसे पहले दृश्यका स्वभाव, स्वरूप और प्रयोजन बतलाते हैं
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥१८॥
व्याख्या- सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण और इनका कार्य जो कुछ भी देखने, सुनने और समझनेमें आता है, वह सब-का-सब दृश्यके अन्तर्गत है। सत्त्वगुणका मुख्य धर्म प्रकाश है, रजोगुणका मुख्य धर्म क्रिया (हलचल) है और तमोगुणका मुख्य धर्म स्थिति अर्थात् जडता और सुषुप्ति आदि है । इन तीनों गुणोंकी साम्यावस्थाको ही प्रधान या प्रकृति कहते हैं। यह सांख्यका मत है। अतः सब अवस्थाओंमें अनुगत तीनों गुणोंका जो प्रकाश, क्रिया और स्थितिरूप स्वभाव है, वही दृश्यका स्वभाव है। पाँच स्थूल भूत, पाँच तन्मात्रा, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन, बुद्धि और अहंकार-ये सब (तेईस तत्त्व) प्रकृतिके कार्य होनेसे उसके स्वरूप हैं। भोगासक्त पुरुषको अपना स्वरूप दिखलाकर भोग प्रदान करना और मुक्ति चाहनेवाले योगीको द्रष्टाका स्वरूप दिखलाकर मुक्ति प्रदान करना दृश्यका प्रयोजन है। द्रष्टाको उसका निज स्वरूप दिखा देनेके बाद इसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस पुरुषके लिये यह अस्त (लुप्त) हो जाता है (२ । २२) ॥ १८॥
0 Comments