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योग दर्शन सूत्र 13 से 19 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, पतंजलि योग सूत्र इन हिंदी पतंजलि योग सूत्र व्यास भाष्य, पतंजलि योग सूत्र में कितने अध्याय है

 योग दर्शन सूत्र 13 से 19 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, पतंजलि योग सूत्र इन हिंदी पतंजलि योग सूत्र व्यास भाष्य, पतंजलि योग सूत्र में कितने अध्याय है


सम्बन्ध- उक्त दोनों उपायोंमेंसे पहले अभ्यासका लक्षण बतलाते हैं,




तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ १३॥

व्याख्या- जो स्वभावसे ही चञ्चल है ऐसे मनको किसी एक ध्येयमें स्थिर करनेके लिये बारम्बार चेष्टा करते रहनेका नाम 'अभ्यास' है। इसके प्रकार शास्त्रोंमें बहुत बतलाये गये हैं; इसी पादके ३२ वें सूत्रसे ३९ वेंतक अभ्यासके कुछ भेदोंका वर्णन है; उनमेंसे जिस साधकके लिये जो सुगम हो, जिसमें उसकी स्वाभाविक रुचि और श्रद्धा हो उसके लिये वही ठीक है ॥ १३ ॥


योग-दर्शन-सूत्र-13-से-19-तक-संस्कृत-हिन्दी-अनुवाद-सहित


सम्बन्ध- अब अभ्यासके दृढ़ होनेका प्रकार बतलाते हैं,


स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढभूमिः ॥१४॥


व्याख्या- अपने साधनके अभ्यासको दृढ़ बनानेके लिये साधकको चाहिये कि साधनमें कभी उकतावे नहीं। यह दृढ़ विश्वास रखे कि किया हुआ अभ्यास कभी भी व्यर्थ नहीं हो सकता, अभ्यासके बलसे मनुष्य निःसंदेह अपने लक्ष्यकी प्राप्ति कर लेता है। यह समझकर अभ्यासके लिये कालकी अवधि न रखे, आजीवन अभ्यास करता रहे, साथ ही यह भी ध्यान रखे कि अभ्यासमें व्यवधान (अन्तर) न पड़ने पावे, निरन्तर (लगातार) अभ्यास चलता रहे तथा अभ्यासमें तुच्छ बुद्धि न करे, उसकी अवहेलना न करे, बल्कि अभ्यासको ही अपने जीवनका आधार बनाकर अत्यन्त आदर और प्रेमपूर्वक उसे साङ्गोपाङ्ग करता रहे। इस प्रकार किया हुआ अभ्यास दृढ़ होता है * ॥१४॥



सम्बन्ध- अब वैराग्यके लक्षण आरम्भ करते हुए पहले अपर-वैराग्यके लक्षण बतलाते है



दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥१५॥


व्याख्या- अन्तःकरण और इन्द्रियोंके द्वारा प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाले इस लोकके समस्त भोगोंका समाहार यहाँ 'दष्ट' शब्दमें किया गया है और जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं हैं, जिनकी बड़ाई वेद, शास्त्र और भोगोंका अनुभव करनेवाले पुरुषोंसे सुनी गयी है, ऐसे भोग्य विषयोंका समाहार् 'आनुश्रविक' शब्दमें किया गया है। उपर्युक्त दोनों प्रकारके भोगोंसे जब चित्त भलीभांति तृष्णारहित हो जाता है, जब उसको प्राप्त करनेकी इच्छाका सर्वथा नाश हो जाता है, ऐसे कामनारहित चित्तकी जो वशीकार नामक अवस्थाविशेष है, वह 'अपर-वैराग्य' है॥१५॥




सम्बन्ध-अब पर वैराग्यके लक्षण बतलाते है,


तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥ १६ ॥


व्याख्या- पहले बतलाये हुए चित्तकी वशीकार-संज्ञारूप वैराग्यसे जब साधककी विषयकामनाका अभाव हो जाता है और उसके चित्तका प्रवाह समानभावसे अपने ध्येयके अनुभवमें एकाग्र हो जाता है (योग० ३ । १२), उसके बाद समाधि परिपक्व होनेपर प्रकृति और पुरुषविषयक विवेकज्ञान प्रकट होता है (योग०३ । ३५), उसके होनेसे जब साधककी तीनों गुणोंमें और उनके कार्यमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी तृष्णा नहीं रहती; (योग० ४ । २६), जब वह सर्वथा आप्तकाम निष्काम हो जाता है (योग०२ । २७), ऐसी सर्वथा रागरहित अवस्थाको 'पर-वैराग्य' कहते हैं ॥१६॥



सम्बन्ध- इस प्रकार चित्तवृत्ति-निरोधके उपायोंका वर्णन करके अब चित्तवृत्तिनिरोधरूप निर्बीज-योगका स्वरूप बतलानेके लिये पहले उसके पूर्वकी अवस्थाका सम्प्रज्ञातयोगके नामसे अवान्तर भेदोंके सहित वर्णन करते हैं,



वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्सम्प्रज्ञातः ॥ १७॥


व्याख्या- सम्प्रज्ञातयोगके ध्येय पदार्थ तीन माने गये हैं-(१) ग्राह्य (इन्द्रियोंके स्थूल और सूक्ष्म विषय), (२) ग्रहण (इन्द्रियाँ और अन्तःकरण) तथा (३) ग्रहीता (बुद्धिके साथ एकरूप हुआ पुरुष) (योग० १४१)। जब ग्राह्य पदार्थोक स्थूलरूप में समाधि की जाती है, उस समय समाधिमें जबतक शब्द, अर्थ और ज्ञानका विकल्प वर्तमान रहता है, तबतक तो वह सवितर्क समाधि है; और जब इनका विकल्प नहीं रहता, तब वही निर्वितर्क कही जाती है। इसी प्रकार जब ग्राह्य और ग्रहणके सूक्ष्मरूपमें समाधि की जाती है उस समय समाधिमें जबतक शब्द, अर्थ और ज्ञानका विकल्प रहता है, तबतक वह सविचार और जब इनका विकल्प नहीं रहता, तब वही निर्विचार कही जाती है। जब निर्विचार समाधिमें विचारका सम्बन्ध तो नहीं रहता, परंतु आनन्दका अनुभव और अहङ्कारका सम्बन्ध रहता है, तबतक वह आनन्दानगता समाधि है और जब उसमें आनन्दकी प्रतीति भी लप्त हो जाती है, तब वही केवल अस्मितानुगत समझी जाती है। यही निर्विचार समाधिकी निर्मलता है, इनका विस्तृत विचार इसी पादके ४१ वें सूत्रसे ४९ वेंतक किया। गया है ॥ १७॥


सम्बन्ध- अब उस अन्तिम योगका स्वरूप बतलाते हैं, जिसके सिद्ध होनेपर द्रष्टाकी अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है (योगः १।३); जो कि इस शास्त्रका मुख्य प्रतिपाद्य है जिसे कैवल्य-अवस्था भी कहते हैं,



विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ १८॥


व्याख्या- साधकको जब पर-वैराग्यकी प्राप्ति हो जाती है, उस समय स्वभावसे ही चित्त संसारके पदार्थों की ओर नहीं जाता। वह उनसे अपने-आप उपरत हो जाता है। उस उपरत-अवस्थाकी प्रतीतिका नाम ही यहाँ विराम-प्रत्यय है। इस उपरतिकी प्रतीतिका अभ्यास-क्रम भी जब बंद हो जाता है, उस समय चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा अभाव हो जाता है (योग० १।५१); केवलमात्र अन्तिम उपरत-अवस्थाके संस्कारोंसे युक्त चित्त रहता है (योग०३।९-१०)। फिर निरोध-संस्कारोंके क्रमकी समाप्ति होनेसे वह चित्त भी अपने कारणमें लीन हो जाता है (योग०४।३२-३४) अतः प्रकृतिके संयोगका अभाव हो जानेपर द्रष्टाकी अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है। इसीको असम्प्रज्ञातयोग, निर्बीजसमाधि (योग० ११५१) और कैवल्य-अवस्था (योग० २।२५; ३ । ५५:४ । ३४) आदि नामोंसे कहा गया है ॥१८॥



सम्बन्ध- यहाँतक योग और उसके साधनोंका संक्षेपमें वर्णन किया गया, अब किस प्रकारके साधकका उपर्युक्त योग शीघ्र-से-शीघ्र सिद्ध होता है, यह समझानेके लिये प्रकरण आरम्भ किया जाता है,



भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १९ ॥


व्याख्या- जो पूर्वजन्ममें योगका साधन करते-करते विदेहअवस्थातक पहुँच चुके थे; अर्थात् शरीरके बन्धनसे छूटकर शरीरके बाहर स्थिर होनेका जिनका अभ्यास दृढ़ हो चुका था, जो 'महाविदेह' स्थितिको प्राप्त कर चुके थे (योग० ३।४३), एवं जो साधन करते-करते 'प्रकृतिलय' (योग० १ । ४५; ३ । ४८) तककी स्थिति प्राप्त कर चुके थे, किंतु कैवल्य-पदकी प्राप्ति होनेके पहले जिनकी मृत्यु हो गयी, उन दोनों प्रकारके योगियोंका जब पुनर्जन्म होता है, जब वे योगभ्रष्ट साधक पुनः योगिकुलमें जन्म ग्रहण करते हैं; तब उनको पूर्वजन्मके योगाभ्यास-विषयक संस्कारोंके प्रभावसे अपनी स्थितिका तत्काल ज्ञान हो जाता है (गीता ६।४२-४३) और वे साधनकी परम्पराके बिना ही निर्बीजसमाधिअवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं। उनकी निर्बीजसमाधि उपायजन्य नहीं है, अतः उसका नाम 'भवप्रत्यय' है अर्थात्व ह ऐसी समाधि है कि जिसके सिद्ध होनेमें पुनः मनुष्यजन्म प्राप्त होना ही कारण है, साधनसमुदाय नहीं ॥ १९॥


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