योग दर्शन सूत्र 20 से 26 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, समाधिपाद के सूत्र, योग चित्त वृत्ति निरोध इन संस्कृत, योग चित्त वृत्ति निरोध श्लोक
सम्बन्ध- दूसरे साधकोंका योग कैसे सिद्ध होता है? सो बतलाते हैं,
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ २०॥
व्याख्या- किसी भी साधनमें प्रवृत्त होनेका और अविचल भावसे उसमें लगे रहनेका मूल कारण श्रद्धा (भक्तिपूर्वक विश्वास) ही है। श्रद्धाकी कमीके कारण ही साधकके साधनकी उन्नतिमें विलम्ब होता है, अन्यथा कल्याणके साधनमें विलम्बका कोई कारण नहीं है। साधनके लिये किसी अप्राप्त योग्यता और परिस्थितिकी आवश्यकता नहीं है। इसीलिये सूत्रकारने श्रद्धाको पहला स्थान दिया है। श्रद्धाके साथ साधकमें वीर्य अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीरका सामर्थ्य भी परम आवश्यक है; क्योंकि इसीसे साधकका उत्साह बढ़ता है।
श्रद्धा और वीर्य-इन दोनोंका संयोग मिलनेपर साधककी स्मरणशक्ति बलवती हो जाती है तथा उसमें योगसाधनके संस्कारोंका ही बारम्बार प्राकट्य होता रहता है; अतः उसका मन विषयोंसे विरक्त होकर समाहित हो जाता है। इसीको समाधि कहते हैं (योग० १।४६; ३ । ३)। इससे अन्तःकरण स्वच्छ हो जानेपर साधककी बुद्धि 'ऋतम्भरा'-सत्यको धारण करनेवाली हो जाती है (योग० १।४८)। इस बुद्धिका ही नाम समाधिप्रज्ञा है। अतएव पर-वैराग्यकी प्राप्तिपूर्वक साधकका निर्बीजसमाधिरूप योग सिद्ध हो जाता है। गीतामें भी कहा है श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ (४।३९) जितेन्द्रिय साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके-तत्काल ही परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है ॥ २०॥
सम्बन्ध- अब अभ्यास-वैराग्यकी अधिकताके कारण योगकी सिद्धि शीघ्र और अति शीघ्र होनेकी बात कहते हैं,
तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥ २१॥-
जिनके साधनकी गति तीव्र हैं, उनकी (निर्बीजसमाधि); आसन्नः-शीघ्र (सिद्ध) होती है।
व्याख्या- जिन पुरुषोंका साधन (अभ्यास और वैराग्य) तेजीसे चलता है, जो सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंको ठुकराकर अपने साधनमें तत्परतासे लगे रहते हैं, उनका योग शीघ्र सिद्ध होता है ॥२१॥
मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततोऽपि विशेषः ॥ २२॥
व्याख्या- किसका साधन किस दर्जेका है; इसपर भी योग-सिद्धिकी शीघ्रताका विभाग निर्भर करता है; क्योंकि क्रियात्मक अभ्यास और वैराग्य तीव्र होनेपर भी विवेक और भावकी न्यूनाधिकताके कारण समाधि सिद्ध होनेके कालमें भेद होना स्वाभाविक है। जिस साधकमें श्रद्धा, विवेकशक्ति और भाव कुछ उन्नत हैं, उसका साधन मध्यमात्रावाला है और जिस साधकमें श्रद्धा, विवेक और भाव अत्यन्त उन्नत हैं, उसका साधन अधिमात्रावाला है। साधनमें क्रियाकी अपेक्षा भावका अधिक महत्त्व है। अभ्यास और वैराग्यका जो क्रियात्मक बाह्य स्वरूप है, वह तो ऊपरवाले सूत्रमें 'वेग'के नामसे कहा गया है; और उनका जो भावात्मक आभ्यन्तर स्वरूप है, वह उनकी मात्रा यानी दर्जा है। व्यवहारमें भी देखा जाता है कि एक ही कामके लिये समानरूपसे परिश्रम किया जानेपर भी जो उसकी सिद्धिमें अधिक विश्वास रखता है,
जिस मनुष्यको उस कामके करनेकी युक्तिका अधिक ज्ञान है एवं जो उसे प्रेम और उत्साहपूर्वक बिना उकताये करता रहता है; वह दूसरोंकी अपेक्षा उसे शीघ्र पूरा कर लेता है। वही बात समाधि की सिद्धिमें भी समझ लेनी चाहिये। समाधिकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवालोंमें जिसका साधन श्रद्धा, विवेकशक्ति और भाव आदिकी अधिकताके कारण जितने ऊँचे दर्जेका है और जिसकी चालका क्रम जितना तेज है, उसीके अनुसार वह शीघ्र या अतिशीघ्र समाधिकी प्राप्ति कर सकेगा। यही बात समझानेके लिये सूत्रकारने उपर्युक्त दो सूत्रोंकी रचना की है-ऐसा मालूम होता है। अतः साधकको चाहिये कि अपने साधनको सर्वथा निर्दोष बतानेकी चेष्टा रखे, उसमें किसी प्रकारकी शिथिलता न आने दे॥२२॥
सम्बन्ध- अब पूर्वोक्त अभ्यास और वैराग्यकी अपेक्षा निर्बीज-समाधिका सुगम उपाय बतलाया जाता है,
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ २३॥
व्याख्या- ईश्वरकी भक्ति यानी शरणागतिका नाम 'ईश्वरप्रणिधान' है (देखिये योग० २१ की व्याख्या): इससे भी निर्बीज-समाधि शीघ्र सिद्ध हो सकती है (योग०२।४५), क्योंकि ईश्वर सर्वसमर्थ हैं, वे अपने शरणापन्न भक्तपर प्रसन्न होकर उसके भावानुसार सब कुछ प्रदान कर सकते हैं (गीता ४ । ११*) ॥ २३ ॥
सम्बन्ध- अब उक्त ईश्वरके लक्षण बतलाते हैं,
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४ ॥
व्याख्या-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश-ये पाँच '
क्लेश' हैं; इनका विस्तृत वर्णन दूसरे पादके तीसरे सूत्रसे नवेंतक है। 'कर्म' चार प्रकारके हैं-पुण्य, पाप, पुण्य और पापमिश्रित तथा पुण्य-पापसे रहित (योग०४।७)। कर्मके फलका नाम 'विपाक' ह(योग० २।१३) और कर्मसंस्कारोंके समुदायका नाम 'आशय' है (योग० २।१२) । समस्त जीवोंका इन चारोंसे अनादि सम्बन्ध है। यद्यपि मुक्त जीवोंका पीछे सम्बन्ध नहीं रहता तो भी पहले सम्बन्ध था ही; किंतु ईश्वरका तो कभी भी इनसे न सम्बन्ध था, न है और न होनेवाला है। इस कारण उन मुक्त पुरुषोंसे भी ईश्वर विशेष है, यह बात प्रकट करनेके लिये ही सूत्रकारने 'पुरुषविशेषः' पदका प्रयोग किया है ।। २४ ।।
सम्बन्ध- ईश्वरकी विशेषताका पुनः प्रतिपादन करते हैं,
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥२५॥
व्याख्या- जिससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु हो, वह सातिशय है और जिससे बड़ा कोई न हो वह निरतिशय है। ईश्वर ज्ञानकी अवधि है, उसका ज्ञान सबसे बढ़कर है; उसके ज्ञानसे बढ़कर किसीका भी ज्ञान नहीं है; इसलिये उसे निरतिशय कहा गया है। जिस प्रकार ईश्वरमें ज्ञानकी पराकाष्ठा है, उसी प्रकार धर्म, वैराग्य, यश और ऐश्वर्य आदिकी पराकाष्ठाका आधार भी उसीको समझना चाहिये ॥२५॥
सम्बन्ध- और भी उसकी विशेषताका प्रतिपादन करते हैं,
पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥
व्याख्या- सर्गके आदिमें उत्पन्न होनेके कारण सबका गुरु ब्रह्माको माना जाता है, परंतु उसका कालसे अवच्छेद है (गीता ८ । १७) । ईश्वर स्वयं अनादि और अन्य सबका आदि है (गीता १०।२-३); वह कालकी सीमासे सर्वथा अतीत है, वहाँतक कालकी पहुँच नहीं है; क्योंकि वह कालका भी महाकाल है। इसलिये वह सम्पूर्ण पूर्वजोंका भी गुरु यानी सबसे बड़ा, सबसे पुराना और सबको शिक्षा देनेवाला है (श्वेता०३।४।६।१८) ॥२६॥
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