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योग दर्शन सूत्र 08 से 12 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, योग दर्शन के अनुसार प्रमाण होते है, आगम-प्रमाण

 योग दर्शन सूत्र 09से 12 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, योग दर्शन के अनुसार प्रमाण होते है,

सम्बन्ध- अब विकल्पवृत्तिके लक्षण बतलाये जाते हैं,

योग-दर्शन-सूत्र-08-से-12-तक-संस्कृत-हिन्दी-अनुवाद-सहित


शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥९॥

शब्दज्ञानानुपाती-

जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञानके साथ-साथ होनेवाला है, बाढ़ आया देखकर दूर-देशमें वृष्टि होनेका ज्ञान होना-इत्यादि । इनमें भी जिन अनुमानोंसे मनुष्यको संसारके पदार्थोंकी अनित्यता, दुःखरूपता आदि दोषोंका ज्ञान होकर उनमें वैराग्य होता है और योगके साधनोंमें श्रद्धा बढ़ती है, जो आत्मज्ञान में सहायक हैं, वे सब वृत्तियाँ तो अक्लिष्ट हैं और उनके विपरीत वृत्तियाँ क्लिष्ट हैं। 


(३) आगम-प्रमाण-

वेद, शास्त्र और आप्त (यथार्थ वक्ता) पुरुषोंके वचनको 'आगम' कहते हैं। जो पदार्थ मनुष्यके अन्तःकरण और इन्द्रियोंके प्रत्यक्ष नहीं है एवं जहाँ अनुमानकी भी पहुँच नहीं है, उसके स्वरूपका ज्ञान वेद, शास्त्र और महापुरुषों के वचनोंसे होता है, वह आगमसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जिस आगम-प्रमाणसे मनुष्यका भोगोंमें वैराग्य होता है (गीता ५। २२) और योगसाधनोंमें श्रद्धा-उत्साह बढ़ते हैं, वह तो अक्लिष्ट है और जिस आगम-प्रमाणसे भोगोंमें प्रवृत्ति और योग साधनोंमें अरुचि हो, जैसे स्वर्गलोकके भोगोंकी बड़ाई सुनकर उनमें और उनके साधनरूप सकाम कर्मोंमें आसक्ति और प्रवृत्ति होती है, वह क्लिष्ट है ॥७॥



सम्बन्ध- प्रमाणवृत्तिके भेद बतलाकर अब विपर्ययवृत्तिके लक्षण बतलाते हैं,



विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥ ८॥

व्याख्या-किसी भी वस्तुके असली स्वरूपको न समझकर उसे दूसरी ही वस्तु समझ लेना-यह विपरीत ज्ञान ही विपर्ययवृत्ति है-जैसे सीपमें चाँदीकी प्रतीति । यह वृत्ति भी यदि भोगोंमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली और योगमार्गमें श्रद्धा-उत्साह बढ़ानेवाली हो तो अक्लिष्ट है, अन्यथा क्लिष्ट है। जिन इन्द्रिय आदिके द्वारा वस्तुओंका यथार्थ ज्ञान होता है, उन्हींसे विपरीत ज्ञान भी होता है। यह मिथ्या ज्ञान भी कभी-कभी भोगोंमें वैराग्य करनेवाला हो जाता है। जैसे भोग्य पदार्थोंकी क्षणभङ्गरताको देखकर, अनुमान करके या सुनकर उनकोसर्वथा मिथ्या मान लेना योग-सिद्धान्तके अनुसार विपरीतवृत्ति है, क्योंकि वे परिवर्तनशील होनेपर भी मिथ्या नहीं हैं । 



तथापि यह मान्यता भोगीमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली होनेसे अक्लिष्ट है। कुछ महानुभावोंके मतानुसार विपर्ययवृत्ति और अविद्या-दोनों एक ही हैं, परंतु यह युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होता क्योंकि अविद्याका नाश तो केवल असम्प्रज्ञातयोगसे ही होता है (योग० ४ । २९-३०) जहाँ प्रमाणवृत्ति भी नहीं रहती। किंतु विपर्ययवृत्तिका नाश तो प्रमाणवृत्तिसे ही हो जाता है। इसके सिवा योगशास्त्रके मतानुसार विपर्यय ज्ञान चित्तकी वृत्ति है, किंतु अविद्या चित्तवृत्ति नहीं मानी गयी है; क्योंकि वह द्रष्टा और दृश्यके स्वरूपकी उपलब्धिमें हेतुभूत संयोगकी भी कारण है (योग० २।२३-२४) तथा अस्मिता और राग आदि क्लेशोंकी भी कारण है (योग० २।४), इसके अतिरिक्त प्रमाणवृत्तिमें विपर्ययवृत्ति नहीं है, परंतु राग-द्वेषादि क्लेशोंका वहाँ भी सद्भाव है, इसलिये भी विपर्ययवृत्ति और अविद्याकी एकता नहीं हो सकती; क्योंकि विपर्ययवृत्ति तो कभी होती है, और कभी नहीं होती, 

किंतु अविद्या तो कैवल्य-अवस्थाकी प्राप्तितक निरन्तर विद्यमान रहती है। उसका नाश होनेपर तो सभी वत्तियोंका धर्मी स्वयं चित्त भी अपने कारणमें विलीन हो जाता है (योग० ४ । ३२)। परंतु प्रमाणवृत्तिके समय विपर्ययवृत्तिका अभाव हो जानेपर भी न तो राग-द्वेषोंका नाश होता है तथा न द्रष्टा और दृश्यके संयोगका ही। इसके सिवा प्रमाणवृत्ति क्लिष्ट भी होती है; परंतु जिस यथार्थ ज्ञानसे अविद्याका नाश होता है, वह क्लिष्ट नहीं होता। अतः यही मानना ठीक है कि चित्तका धर्मरूप विपर्ययवृत्ति अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृतिके संयोगकी कारणरूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है॥८॥



सम्बन्ध- अब विकल्पवृत्तिके लक्षण बतलाये जाते हैं,



शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥९॥


व्याख्या- केवल शब्दके आधारपर बिना हुए पदार्थकी कल्पना करनेवाली जो चित्तकी वत्ति है, वह विकल्पवृत्ति है। यह भी यदि वैराग्यकी वृद्धिमें हेतु, योगसाधनों में श्रद्धा और उत्साह बढ़ानेवाली तथा आत्मज्ञानमें सहायक हो तो अक्लिष्ट है, अन्यथा क्लिष्ट है। आगम-प्रमाणजनित वृत्तिसे होनेवाले विशुद्ध संकल्पोंके सिवा सुनीसुनायी बातोंके आधारपर मनुष्य जो नाना प्रकारके व्यर्थ संकल्प करता रहता है, उन सबको विकल्पवृत्तिके ही अन्तर्गत समझना चाहिये। विपर्ययवृत्तिमें तो विद्यमान वस्तुके स्वरूपका विपरीत ज्ञान होता है और विकल्पवृत्तिमें अविद्यमान वस्तुकी शब्दज्ञानके आधारपर कल्पना होती है, यहीं विपर्यय और विकल्पका भेद है। जैसे कोई मनुष्य सुनी-सुनायी बातोंके आधारपर अपनी मान्यताके अनुसार भगवान्के रूपकी कल्पना करके भगवान्का ध्यान करता है, पर जिस स्वरूपका वह ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है. न वेद- शास्त्रसम्मत है और न वैसा कोई भगवान्का स्वरूप वास्तवमें है ही, केवल कल्पनामात्र ही है। यह विकल्पवृत्ति मनुष्यको भगवान्के चिन्तनमें लगानेवाली होनेसे अक्लिष्ट है; दूसरी जो भोगोंमें प्रवृत्त करनेवाली विकल्पवृत्तियाँ हैं, वे क्लिष्ट हैं। इसी प्रकार सभी वृत्तियोंमें क्लिष्ट और अक्लिष्टका भेद समझ लेना चाहिये ॥९॥



सम्बन्ध- अब निद्रावृत्तिके लक्षण बतलाये जाते हैं।

अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥१०॥

व्याख्या- जिस समय मनुष्यको किसी भी विषयका ज्ञान नहीं रहता केवलमात्र ज्ञानके अभावकी ही प्रतीति रहती है, वह ज्ञानके अभावका ज्ञान जिस चित्तवृत्तिके आश्रित रहता है, वह निद्रावत्ति है।* निद्रा भी चित्तकी वृत्तिविशेष है, तभी तो मनुष्य गाढ़ निद्रासे उठकर कहता है कि मुझे आज ऐसी गाढ़ निद्रा आयी जिसमें किसी बातकी कोई खबर नहीं रही। इस स्मृतिवृत्तिसे ही यह सिद्ध होता है कि निद्रा भी एक वृत्ति है, नहीं तो जगनेपर उसकी स्मृति कैसे होती।निद्रा भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकारकी होती है। जिस निद्रासे जगनेपर साधकके मन और इन्द्रियोंमें सात्त्विकभाव भर जाता है, आलस्यका नाम-निशान नहीं रहता तथा जो योगसाधनमें उपयोगी और आवश्यक मानी गयी है। (गीता ६।१७) ,वह अक्लिष्ट है, दूसरे प्रकारकी निंद्रा उस अवस्थामें परिश्रमके अभावका बोध कराकर विश्रामजनित सुखमें आसक्ति उत्पन्न करनेवाली होनेसे क्लिष्ट है ॥ १० ॥



सम्बन्ध- अब स्मृत्तिवृत्तिके लक्षण बतलाये जाते हैं,

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥ ११ ॥

व्याख्या- उपर्युक्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प और निद्रा-इन चार प्रकारकी वृत्तियोंद्वारा अनुभवमें आये हुए विषयोंके जो संस्कार चित्तमें पड़े हैं, उनका पुनः किसी निमित्तको पाकर स्फुरित हो जाना ही स्मृति है। उपर्युक्त चार प्रकारकी वृत्तियोंके सिवा इस स्मृतिवृत्तिसे जो संस्कार चित्तपर पड़ते हैं । उनमें भी पुनः स्मृतिवृत्ति उत्पन्न होती है। स्मृतिवृत्ति भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट दोनों ही प्रकारकी होती है। जिस स्मरणसे मनुष्यका भोगोंमें वैराग्य होता है तथा जो योगसाधनोंमें श्रद्धा और उत्साह बढ़ानेवाला एवं आत्मज्ञानमें सहायक है, वह तो अक्लिष्ट है और जिससे भोगोंमें राग-द्वेष बढ़ता है, वह क्लिष्ट है। स्वप्नको कोई-कोई स्मृतिवृत्ति मानते हैं, परंतु स्वप्नमें जाग्रत्की भाँति सभी वृत्तियोंका आविर्भाव देखा जाता है; अतः उसका किसी एक वृत्तिमें अन्तर्भाव मानना उचित प्रतीत नहीं होता ॥ ११ ॥



सम्बन्ध- यहाँतक योगकी कर्तव्यता, योगके लक्षण और चित्तवृत्तियोंके लक्षण बतलाये गये; अब उन चित्तवृत्तियोंके निरोधका उपाय बतलाते है,


अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १२ ॥


व्याख्या- चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध करनेके लिये अभ्यास और वैराग्य-ये दो उपाय हैं। चित्तवृत्तियोंका प्रवाह परम्परागत संस्कारोंके बलसे सांसारिक भोगोंकी ओर चल रहा है। उस प्रवाहको रोकनेका उपाय वैराग्य है और उसे कल्याणमार्गमें ले जानेका उपाय अभ्यास है॥ १२ ॥


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