विष्णु पुराण अंश १ अध्याय २ vishnu puran श्री विष्णु पुराण कथा संपूर्ण, विष्णु पुराण अध्याय 1, विष्णु पुराण अध्याय 2,विष्णु पुराण अध्याय 5,
विष्णु पुराण की रचना काल के सम्बन्ध में निश्चित कहना कुछ भी सम्भव तो नहीं है किन्तु जिस प्रकार से वायु पुराण का उल्लेख प्राप्त होता है और यह माना जाता है कि यह एक प्राचीन पुराण है उसी रूप में यह भी कहा जाता है कि विष्णु पुराण की रचना शैली और वर्ण्य-विषय वायु पुराण के अनुकूल हैं। इन दोनों प्रकार की रचना शैलियों की पुष्टता से यह अनुमान होता है कि उस समय तक पुराणों की रचना पुष्ट रूप में हो चुकी थी। जहाँ तक इनके रचना समय का प्रश्न है,
तो यह अनुमान किया जा सकता है कि यह समय वंशीय शासन का रहा होगा। यह समय पाँचवीं शताब्दी के आस-पास का हो सकता है। मत्स्य पुराण के विषय में यह कहा गया है कि यह पुराण प्राचीन पुराण है और कई अन्य पुराणों की रचना का स्त्रोत है। कालिदास के नाटक विक्रमोर्वशीय में मत्स्य पुराण का उल्लेख होने से यह माना जाता है कि यह पुराण ईसा के पूर्व २०० से ४०० शताब्दी का होना चाहिए। इस रूप में विष्णु पुराण को भी इसी समय की रचना माना जा सकता है क्योंकि मत्स्य पुराण की समान शैली होने के कारण और विषय-वस्तु में समानता होने के कारण इसकी रचना ईसा पूर्व २०० से ४०० वर्ष तक के समय की हो सकती है। विष्ण पुराण की शैली परिपुष्ट शैली है और इसमें जिन विषयों का संकेत किया गया है वे सभी विषय और कथायें अधिकतम रूप से संकलित हैं।
अथर्व वेद,
पुराण सम्बद्ध,
पुराण का वेदत्व,
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एक दूसरी दृष्टि से अर्थात् साम्प्रदायिक विचार धारा की दृष्टि से जब पुराणों के रचनाकाल पर विचार किया जाता है तो यह कहा जाता है कि पुराण वर्तमान स्वरूप में बहुत बाद के समय में रचे गये हैं। इन पुराणों में रामानुजाचार्य सम्प्रदाय, मध्वाचार्य सम्प्रदाय और बल्लभाचार्य आदि सम्प्रदायों के मतों का उल्लेख यत्र-तत्र देखने को मिलता है। ये आचार्य चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी के आचार्य हैं। इसलिए इस दृष्टि से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि इनका समय बहुत बाद का समय होना चाहिए और यह समय पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद तक का हो सकता है।'
यह तो दृष्टिगत है ही कि पुराणों का कलेवर बहुत विशाल है बहुत व्यापक है और विषय वस्तु विविध रूप में संजोयी गयी है। इसलिये इनकी विशालता, व्यापकता और विविधता को देखकर पुराणों के रचना का एक निश्चित समय कह पाना कठिन है। फिर भी अधिकतम रूप में जो माना जाता है उसके अनुसार यह कहा जाता है कि पुराणों की आख्यान अवस्था बारह सौ वर्ष ईसा पूर्व से लेकर ६५० वर्ष ईसा पूर्व तक हो सकती है। इसी तरह से जो पुराणों में पञ्च लक्षणों का समावेश किया गया है
वह ५०० वर्ष ईसा पूर्व से लेकर ईस्वीय की प्रथम शताब्दी तक हो सकता है जबकि इनका साम्प्रदायिक रचना काल प्रथम शताब्दी से सप्तम् शताब्दी तक का हो सकता है।
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