अक्ष्युपनिषद् द्वितीयः खण्डः मंत्र २५ से ४८ संस्कृत हिन्दी अनुवाद,
॥२५॥
कृत्वा दूरतरे नूनमिति शब्दार्थभावनम्। यन्मौनमासनं शान्तं तच्छ्रेष्ठासङ्ग उच्यते॥२६॥
इस प्रकार महान पुरुषों के निरन्तर सत्संग से जो यह कहे कि मैं कर्त्ता नहीं, ईश्वर ही कर्ता है या मेरे पूर्व जन्म में किए गये कर्म ही कर्ता हैं। इस प्रकार से समस्त चिन्ताओं और शब्द-अर्थ के भाव को विसर्जित कर देने के पश्चात् जो मौन (मन-इन्द्रियों का संयम), आसन (आन्तरिक अवस्था) और शान्त भाव (बाहरी 'भावों के विस्मरण) की प्राप्ति होती है, वह श्रेष्ठ असंसर्ग कहा जाता है ।। २५-२६॥
संतोषामोदमधुरा प्रथमोदेति भूमिका । भूमिप्रोदितमात्रोऽन्तरमृताङ्कुरिकेव सा ॥२७॥
एषा हि परिमष्टान्तरन्यासां प्रसवैकभूः। द्वितीयां च तृतीयां च भूमिकां प्राप्नुयात्ततः॥२८॥
श्रेष्ठा सर्वगता ह्येषा तृतीया भूमिकात्र हि। भवति प्रोज्झिताशेषसंकल्पकलनः पुमान्॥२९॥
॥३०॥
॥३१॥
अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2
अन्तःकरण की भूमि में अमृत के छोटे अंकुर के प्रस्फुटन की तरह ही सन्तोष और आह्लादप्रद होने से मधुर प्रतीत होने वाली प्रथम भूमिका का अभ्युदय होता है। इसके उत्पन्न होते ही अन्तरंग में शेष भूमिकाओं के लिए भूमि तैयार हो जाती है।
इसके बाद होने वाली दूसरी एवं तीसरी भूमिका में भी साधक कुशलता प्राप्त कर लेता है। इस तीसरी भूमिका को इसलिए सर्वोत्कृष्टता की श्रेणी में गिना गया है; क्योंकि इसमें साधक सभी संकल्पजन्य वृत्तियों को पूर्णत: त्याग देता है। अद्वैतभाव की दृढभावना से द्वैतभाव स्वतः समाप्त हो जाता है। चौथी भूमिका को प्राप्त साधक इस लोक को स्वप्न की तरह स्वीकार करता है ॥ २७-३१॥
भूमिकात्रितयं जाग्रच्चतुर्थी स्वप्न उच्यते । चित्तं तु शरदभ्रांशविलयं प्रविलीयते॥ ३२॥
सत्त्वावशेष एवास्ते पञ्चमीं भूमिकां गतः। जगद्विकल्पो नोदेति चित्तस्यात्र विलापनात्॥३३॥
पञ्चमीं भूमिकामेत्य सुषुप्तपदनामिकाम् । शान्ताशेषविशेषांशस्तिष्ठत्यद्वैतमात्रकः ॥ ३४॥
गलितद्वैतनिर्भसो मुदितोऽन्तःप्रबोधवान् । सुषुप्तघन एवास्ते पञ्चमीं भूमिकां गताः ॥ ३५॥
अन्तर्मुखतया तिष्ठन्बहिर्वृत्तिपरोऽपि सन् । परिश्रान्ततया नित्यं निद्रालुरिव लक्ष्यते॥३६॥
कुर्वन्नभ्यासमेतस्यां भूमिकायां विवासनः । षष्ठी तुर्याभिधामन्यां क्रमात्पतति भूमिकाम्॥३७॥
यत्र नासन्नसद्रूपो नाहं नाप्यनहंकृतिः । केवलं क्षीणमननमास्तेऽद्वैतेऽतिनिर्भयः ॥ ३८॥
निर्ग्रन्थिः शान्तसंदेहो जीवन्मुक्तो विभावनः।अनिर्वाणोऽपि निर्वाणश्चित्रदीप इव स्थितः॥३९॥
षष्ठयां भूमावसौ स्थित्वा सप्तमीं भूमिमाप्नुयात्। विदेहमुक्तताऽत्रोक्ता सप्तमी योगभूमिका ॥४०॥
प्रारम्भिक तीन भूमिकायें जाग्रत् स्वरूपा हैं तथा चौथी भूमिका स्वप्न कही जाती है। पंचम भूमिका में आरूढ़ होने पर साधक का चित्त शरद्ऋतु के बादलों की तरह विलीन हो जाता है,
मात्र सत्त्व ही शेष बचता है। चित्त के विलीन हो जाने से जागतिक विकल्पों का अभ्युदय नहीं होता। सुषुप्तपद नाम की इस पंचम भूमिका में सम्पूर्ण विभेद शान्त हो जाने पर साधक मात्र अद्वैत अवस्था में ही अवस्थित रहता है। द्वैत के समाप्त हो जाने से आत्मबोध से युक्त हर्षित हुआ साधक पंचम भूमिका में जाकर सुषुप्तघन (आनन्दप्रद अवस्था) को प्राप्त कर लेता है।
वह बहिर्मुखी व्यवहार करते हुए भी हमेशा अन्तर्मुखी ही रहता है तथा सदा थके हुए की तरह निद्रातुर सा दिखता है। इस भूमिका में कुशलता हासिल करते हुए वासनाविहीन होकर वह साधक क्रमशः तुर्या नाम वाली छठी भूमिका में प्रविष्ट होता है।
जहाँ सत्-असत् का अभाव है, अहंकार-अनहंकार भी नहीं है तथा विशुद्ध अद्वैत स्थिति में मननात्मक वृत्ति से रहित होने पर वह अत्यन्त निर्भयता को प्राप्त करता है।
हृदय ग्रन्थियों के उद्घाटित होने पर संशय मिट जाते हैं। जीवन्मुक्त होकर उसकी भावशून्यता की सी स्थिति रहती है। निर्वाण को उपलब्ध न किये जाने पर भी उसकी स्थिति निर्वाण पद को प्राप्त साधक जैसी हो जाती है। उस समय वह निश्चेष्ट दीपक की तरह निश्चल रहता है। छठी भूमिका के पश्चात् वह सातवीं भूमिका की स्थिति प्राप्त करता है। विदेह-मुक्त की स्थिति ही सातवीं भूमिका कही गयी है॥ ३२-४०॥
अगम्या वचसां शान्ता सा सीमा सर्वभूमिषु।लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम्॥४१॥
शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु।ओंकारमात्रमखिलं विश्वप्राज्ञादिलक्षणम्॥४२॥
वाच्यवाचकताभेदात् भेदेनानुपलब्धितः। अकारमात्रं विश्वः स्यादुकारस्तैजसः स्मृतः॥४३॥
प्राज्ञो मकार इत्येवं परिपश्येत्क्रमेण तु। समाधिकालात्प्रागेव विचिन्त्यातिप्रयत्नतः॥ ४४
स्थूलसूक्ष्मक्रमात्सर्वं चिदात्मनि विलापयेत् । चिदात्मानं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसदद्वयः ॥ ४५।।
परमानन्दसंदोहो वासुदेवोऽहमोमिति । आदिमध्यावसानेषु दुःखं सर्वमिदं यतः ॥४६॥
तस्मात्सर्वं परित्यज्य तत्त्वनिष्ठो भवानघ।अविद्यातिमिरातीतं सर्वाभासविवर्जितम्॥ ४७॥
आनन्दममलं शुद्धं मनोवाचामगोचरम् । प्रज्ञानघनमानन्दं ब्रह्मास्मीति विभावयेत्। इत्युपनिषत् ॥४८ ॥
यह भूमिका परम शांत की है तथा वाणी की सामर्थ्य से अवर्णीनीय है। यह सब भूमिकाओं की सीमारूप है तथा यहाँ सम्पूर्ण योग भूमिकाओं की समाप्ति है। लोकाचार, देहाचार और शास्त्रानुगमन को छोड़कर अपने अध्यास को नष्ट करे। विश्व, प्राज्ञ और तैजस के रूप में यह समस्त विश्व
ॐ कार' स्वरूप ही है। वाच्य और वाचक में अभेदता रहती है और भेद होने पर इसकी उपलब्धि सम्भव नहीं। इन्हें क्रमश: इस प्रकार जाने-प्रणव की प्रथम मात्रा 'अकार विश्व, उकार तैजस और मकार प्राज्ञ रूप है।
समाधिकाल से पहले विशेष प्रयासपूर्वक इस सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करके स्थूल और सूक्ष्म से क्रमश: सब कुछ चिदात्मा में विलीन करे। चिदात्मा का स्व-स्वरूप स्वीकार करते हुए ऐसा दृढ़ विश्वास करे-में ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्तारूप, अद्वितीय, परमआनन्द सन्दोह रूप एवं वासुदेव प्रणव ॐ कार हूँ।
चूँकि आदि, मध्य और अन्त में यह सम्पूर्ण प्रपञ्च दु:ख देने वाला ही है, इसलिए हे निष्पाप! सबका परित्याग करके तत्त्वनिष्ठ बने । मैं अज्ञानरूपी अन्धकार से अतीत, सभी प्रकार के आभास से रहित, आनन्दरूप, मलरहित, शुद्ध, मन और वाणी से अगोचर, प्रज्ञानघन, आनन्दस्वरूप ब्रह्म हूँ,ऐसी भावना करे। यही उपनिषद् (रहस्यमयी विद्या) है ॥ ४१-४८ ।।
॥ ॐ सह नाववतु......... इति शान्तिः ॥
।। इति अक्ष्युपनिषत्समाप्ता ॥
पुराण सम्बद्ध,
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