महाभारत में भूमि कृषि कर्म राजा का अधिकार, Mahabharat Mai Krishi Bhumi Karm Adhikaar,
प्राचीन काल में प्रजा की रक्षा तथा पालन-पोषण करना राजा का कर्तव्य माना जाता था। अतः इस दृष्टि से उसे अपने राज्य की कृषि व्यवस्था को भी उत्तम बनाने का प्रयास करना पड़ता था महाभारतकार ने अनेक स्थानों पर राजा के कर्तव्यों में कृषि की रक्षा, पोषण आदि का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में सभा पर्व में नारद मुनि द्वारा प्रश्नोत्तर शैली में युधिष्ठिर के समक्ष शासनोपदेश दिया गया है। जिसमें नारद मुनि ने राजा द्वारा कृषि व्यवस्था को संचालित करने वाले महत्वपूर्ण तत्त्वों का उल्लेख किया है।' इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में कृषि व्यवस्था राजा के अधीन होती थी।
महाभारत में भूमि
कृषि के सन्दर्भ में भूमि का विशेष महत्व है। यदि भूमि उपजाऊ होती है तभी उत्तम फसल होती है और यदि भूमि उपजाऊ न हो तो वह बंजर कहलाती है और इस पर फसल नहीं उत्पन्न होती है। यहां उपजाऊ भूमि से तात्पर्य ‘उर्वरा युक्त भूमि' से है। महाभारत के अनुशासन पर्व भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कृषि योग्य भूमि को श्रेष्ठ बताया गया है। इसके अनुसार प्रबल मिट्टी से युक्त अन्न उपजाने वाली तथा धातुओं से विभूषित भूमि उत्तम मानी गयी है। कृषि योग्य भूमि, जिसमें कुआं हो, बीज सहित फल लगे हों तथा जिसे हल से जोता गया हो, वह दान करने योग्य होती है। ऐसा दान करने वाला व्यक्ति जगत् में शुभ सम्पत्ति प्राप्त
कच्चिन्न चौरैर्लुब्धैर्वा कुमारैः स्त्रीवलेन वा। त्वया वा पीडयते राष्ट्र कच्चित् तुष्टाः कृषीवलाः।। वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सुखमेधते।। महा. भा. सभा. पर्व. 5.77-81
सुप्रदर्शा बलवती चित्रा धातुविभूषिता। उपेता सर्वभूतैश्च श्रेष्ठा भूमिरियेच्यते ।। महा. भा. अनु. पर्व. 58.2
हलकृष्टां महीं दद्याद् यत्सबीजफलान्विताम् । सुकूपशरणां वापि सा भवेत् सर्वकामदा।। महा. भा. अनु. पर्व 145. पृ. 5998
करता है, परन्तु ऊसर अथवा जली हुई भूमि दान नहीं करनी चाहिए। ऐसा उल्लेख ब्रह्मदेव द्वारा भूमि के महात्म्य के वर्णन में देवों के प्रति दिया गया है।' महाभारत के शान्ति पर्व में भूमि की विशेषता के सन्दर्भ में मनु द्वारा बृहस्पति के प्रति कथन है कि जिस प्रकार भूमि में एक ही रस होता है तो भी उसमें जैसा बीज वैसा फल, अर्थात जिस प्रकार का बीज खेतो मै डालते है बीज अनुसार ही फसल उत्पन्न होते है। उसी तरह अन्तरात्मा से ही प्रकाशित बुद्धि पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होती है। यहां मनु द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि भूमि में एक ही रस विद्यमान होत है फिर भी इससे भिन्न-भिन्न रसों से युक्त फसल उत्पन्न होती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि व्यास भूमि के महत्त्व तथा उसकी विशेषताओं से भली-भाँति परिचित थे।
महाभारत तथा कृषि प्रक्रिया वैदिक खेती कृषि
प्राचीन काल से कृषि कर्म को श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण कृषि प्रक्रिया का आधार वैज्ञानिक तकनीक है। कृषि प्रक्रिया के अन्तर्गत सर्वप्रथम भूमि को जोता जाता है फिर बीजारोपण होता है इसके बाद सिंचाई, निराई, कटाई आदि कार्य किये जाते हैं। इस सन्दर्भ में महाभारत शल्य पर्व में ऋषियों द्वारा बलराम के समक्ष कुरूक्षेत्र के नामकरण का कारण बताते हुए कथन है कि पूर्व समय में अमित तेजस्वी राजर्षि प्रवर महात्मा कुरू ने इस क्षेत्र को बहुत वर्षों तक जोता था, इसी कारण इसका नाम 'कुरूक्षेत्र' पड़ा। यहां कृषि कर्म जोताई का उल्लेख किया गया
क्षेत्रभूमिं ददल्लोके शुभां श्रियमवाप्युयात् | रत्नभूमिं प्रदद्यात् तु कुलवंशं प्रवर्धयेत् ।। न चोषरा न निर्दग्धां महीं दद्यात् कथंचन । न श्मशान परीतां च न च पापनिषेविताम् ।। शल्य पर्व 66.31.32
यथा ह्येकरसा भूमिरोषध्यर्थानुसारिणी। तथा कर्मानुगा बुद्धिरन्तरात्मानुदर्शिनी।। महा. भा. शान्ति. पर्व. 206.5
पुरा च राजर्षिवरेण धीमता बहूनि वर्षाण्यामितेन तेजसा। प्रकृष्टमेतत् कुरूणा महात्मना ततः कुरूक्षेत्रमितीहपप्रथे।। महा. भा. शान्ति. पर्व 53.2
है। महर्षि व्यास ने श्रीमहेश्वर तथा उमा देवी के संवाद में कृषि की समस्त प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन किया है इसके अनुसार श्री महेश्वर द्वारा जैव तथा मनुष्य दोनों से सम्पादित होने वाले कार्यों के सन्दर्भ में कथन है कि कृषि में जो जुताई, बोवाई, रोपनी, कटनी तथा ऐसे ही और भी जो कार्य देखे जाते हैं, वे सब मानुष कहे गये हैं। दैव से उस कर्म में सफलता और असफलता होती है। इसमें बीज का रोपना और काटना आदि मनुष्य का काम है, परन्तु समय पर वर्षा होना, बुवाई का सुन्दर परिणाम निकलना, बीज में अङ्कुर उत्पन्न होना और शस्य का श्रेणीबद्ध होकर प्रकट होना इत्यादि कार्य देवसम्बन्धी बताये गये हैं। दैव की अनुकूलता से ही इन कार्यों का सम्पादन होता है। यहां व्यास द्वारा कृषि की सम्पूर्ण प्रक्रिया का विवेचन किया गया है।
कृषि प्रक्रिया में निराई विधि अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती है। इससे खेती की उपज काफी बढ़ जाती है। इस विधि में किसान खेत में व्यर्थ निकले घास तथा जङ्गली पौधे आदि को काटकर साफ कर देता है। इस विधि का उल्लेख भीष्म, युधिष्ठिर के समक्ष क्षत्रियों के कर्तव्य के वर्णन में प्रकारान्तर से किया गया है। कृषि पराशर में भी निराई विधि को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। यथा
निष्पन्नमपि यद्धान्यं न कृतं तृणविजतम्। न सम्यक् फलमाप्नोति तृणक्षीणा कृषिर्भवेत् ।। कुलीरभाद्रयोर्मध्ये यद्धान्यं निस्तृण भवेत। तृणैरपि तु सम्पूर्ण तद्धान्यं द्विगुणं भवेत्।। लौकिकं तु प्रवक्ष्यामि दैवमानुषनिर्मितम् । कृषौ व दृश्यते कर्म कर्षणं वपनं तथा।। एवमादि तु यच्चान्यत् तद् दैवतमिति स्मृतम् ।। महा. मा. अनु. पर्व. 145
पृयथैव क्षेत्रनिर्याता निर्यात क्षेत्रमेव च। हिनस्ति धान्यं कक्षं च न च धान्यं विनश्यति ।। एवं शस्त्राणि मुञ्चन्तो ध्नन्ति वध्याननेकधा। तस्यैषां निष्कृतिः कृत्स्ना भूतानां भावनं पुनः ।। महा. भा. शान्ति पर्व 97.6-7
कृषि प्रक्रिया में वर्षा का अत्यधिक महत्व है क्योंकि वर्षा का जल नदी, तालाब, कुओं आदि के साथ-साथ भूमि को गहराई तक सींच देता है। इसी कारण प्राचीन काल में वैदिक ऋषि, मुनि आदि उत्तम वर्षा के लिए निरन्तर यज्ञ, हवन आदि का कार्य करते रहते थे।
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