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mahabharat krishi Aushadhi औषधियां

mahabharat krishi महाभारत में औषधियां, फल-फूल


इसी प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण के प्रति पाण्डव पक्ष की विजय के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि "इस सय मार्गशीर्ष का मास चल रहा है जिससे सर्वत्र औषधियां, फल-फूल तथा धान के खेतों में समृद्धि बढ़ी हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि मार्गशीर्ष के महीने में कृषि समृद्ध हो जाती थी। अतः इस समस्त विवरण से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में कृषि विज्ञान अत्यन्त विकसित था। इस सन्दर्भ में कौटिल्य का अर्थशास्त्र में बीज वपन काल का उल्लेख मिलता है। कृषि पराशर में उचित काल में बीज वपन करने का निर्देश दिया गया है। mahabharat krishi - 2

mahabharat krishi - 2


महाभारत मै किन किन फल-फूल, पौधे, वनस्पतियां और औषधियां कि कृषि होती थी?


महाभारत के एक प्रसंग मै भगवान श्रीकृष्ण  "इस सय मार्गशीर्ष महीना चल रहा है जिससे सब और औषधियां, फल-फूल तथा धान के खेतों में फसल संपन्न दिखाई पड़ रहे है। महाभारत काल में कृषि विज्ञान अत्यन्त विकसित था। इस सन्दर्भ में कौटिल्य का अर्थशास्त्र में बीज वपन काल का उल्लेख मिलता है। कृषि पराशर में उचित काल में बीज वपन करने का निर्देश दिया गया है। mahabharat krishi - 2 mahabharat krishi - 2

वपन विधि और क्रम

कृषि विज्ञान के अनुसार बीज वपन की प्रमुख रूप से दो विधियां होती हैं –
(1.) बीज वपन
(2.) रोपण।


प्रायः औषधि आदि के बीज बोये जाते हैं और उनके लिये यथा प्रकृति स्थल, उपाय, भूमि तथा बोने हेतु बीज अनिवार्य है। यह क्रिया तीन प्रकार की होती है, यथा सीता श्रेणी में बीज बोना, बीज को फेंककर (प्रकीर्णन द्वारा) बोना और भूमि को गहराई तक खोदकर उसमें बीज बोना। इसी प्रकार बीज वपन की दूसरी विधि रोपण है जिसमें बीज के छोटे-छोटे पौधे रोपे जाते हैं। जैसे – धान के पौधे रोपना महाभारत काल में भी इन विधियों तथा क्रमों का प्रयोग कृषि हेतु किया जाता था। इस सन्दर्भ में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के समक्ष शल्य के ध्वज की चर्चा की गयी है जिसमें प्रकारान्तर से ध्वज में स्थित शुभ लक्षणों से युक्त एक सीता (हल


सौम्योऽतं वर्तते मासः सुप्रापयवसेन्धनः । सर्वौषधिवन स्फीत: फलवानल्पमक्षिकः।।
निष्पको रसपत्तोयो नात्युषण शिशिरः सुखा।। महा. भा. उद्यो. पर्व. 142.16-17

ततः प्रभूतोदकमल्पोदकं वा सस्यवापयेत् ।
शालि-व्रीहि-कोद्रव-तिल-प्रियङ्गु-दारक-वरकाः पूर्ववायाः ।। मुदग्-माष-शैम्ब्याः मध्यवापाः । कुसुम्भ-मसूर-कुलत्थ-यव-गोधूम-कलायातसी-सर्षपाः पश्चाद्वायाः ।।
कौ अर्थशा. 2.24


द्वारा भूमि पर खींची गयी रेखा का उल्लेख मिलता है तथा सभी बीजों के अङ्कुरित होने पर व्याप्त सीता की शोभा की तुलना शल्य के ध्वज से की गयी है। इस वर्णन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में हल द्वारा रेखा खींचकर बीज वपन किया जाता था।महाभारत काल में बीज प्रकीर्णन विधि द्वारा कृषि की जाती थी। इस सन्दर्भ में धृतराष्ट्र द्वारा दुर्योधन के प्रति कथन है कि जिस प्रकार किसान खेतों में बीज बोता है उसी प्रकार समर भूमि में बाण बिखेरते हुए सात्यकि आदि द्वारा बाण फेंके जाएंगे। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में बीज प्रकीर्णन विधि भी प्रचलित थी।

महाभारत के अनुशासन पर्व में श्री महेश्वर द्वारा उमा के प्रति मनुष्य के कर्मों के वर्णन में कृषि कर्म का उल्लेख किया गया है जिसमें रोपण विधि की बात कही गयी है। इससे प्रतीत होता है कि महाभारत काल में कृषि हेतु बीज की रोपण विधि प्रचलित थी। प्राचीन ग्रन्थों में बीज वपन की विधि का उल्लेख मिलता है यथा यजुर्वेद में हलादि उपकरणों द्वारा भूमि खोदकर सीता श्रेणी में बीज वपन करने का उल्लेख मिलना है। अतः इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में वपन विधि तथा वपन क्रम का प्रयोग आधुनिक कृषि विज्ञान के अनुसार किया जाता था।

मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेऽग्नि शिखामिव ।।
सौवर्णी प्रतिपश्याम् सीतामप्रतिमां शुभाम्
सर्वबीज विरूदेव यथा सीता श्रिया वृता।
महा. भा. द्रोण पर्व. 105.18-19

सम्पूर्ण पूरयन् भूयो धनं पार्थस्य माधवः ।
शैनेयः समरे स्थाता बीजवत् प्रवप-शरान् ।।
महा. भा. उद्यो. पर्व. 58.22

रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत् पौरूषं स्मृतम्।।
महा. भा. अनु. पर्व. 145 पृ. 5979

कृते योनौ वपते हबीजम् । नेदीय इत्सृण्य पक्वमेयात् ।।
यजु. वे. 12.68



अनुपयुक्त बीज

कृषि वैज्ञानिकों के मतानुसार, उत्तम बीज ही कृषि करने के लिये उपयुक्त होते हैं। इस सन्दर्भ में महाभारत के शान्ति पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रति गुरू-शिष्य संवाद में यह वर्णन मिलता है कि जिस प्रकार आग में भूने हुए बीज नहीं उगते उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि से दग्ध जीव संसार में जन्म नहीं लेता है।' इस वर्णन के अनुसार भुने हुए बीज कृषि की दृष्टि से अनुपयुक्त माने जाते हैं। अतः यह प्रतीत होता है कि महाभारतकार कृषि के सन्दर्भ में उपयुक्त तथा अनुपयुक्त बीज से भली-भांति परिचित थे।


इस समस्त विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारतकाल में कृषि विज्ञान अत्यन्त विकसित था तथा उस काल में लोग कृषि के सन्दर्भ में वपन की समस्त तकनीकियों से परिचित थे। 

महाभारत तथा सिंचाई के साधन


ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञात और ज्ञेय,

पंचम अध्याय में सनत् कुमार,

कथा अध्याय ३,

वेदों की उत्पत्ति वेद का ज्ञान,

बाल्मीकि रामायण के महात्म्य,

पुराणों की अति प्राचीनकता,

उपनिषद का मूल विषय ब्रह्मविद्या,

वेद का मन्त्र स्मरण,



कृषि तंत्र में कृषि विज्ञान ने निरन्तर उन्नति की है। भारतीय कृषि में कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई के साधनों का बड़ा महत्व है। सिंचाई के साधनों में जल स्रोतों को रखा गया है, इनमें वर्षा का जल, नदी, तालाब, कुएं, वापी, झरनों आदि द्वारा खेती की जाती है।

वृहत्संहिता में कृषि के सन्दर्भ में जल संसाधनों को दो भागों में बांटा गया है, यथा mahabharat krishi - 2-

कृत - इसमें मानव निर्मित जल के स्रोत आते हैं जैसे – कुआं, वापी, तालाब
आदि।
अकृत - इसमें प्राकृतिक जल के स्रोत आते हैं, जैसे – वर्षा, नदी, झरना
आदि।
बीजन्यग्नयुपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः | ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा सम्पद्यते पुनः ।।
महा. भा. शान्ति पर्व 211.17 2 वृहत् सं. 56.3



महाभारत में सिंचाई के साधनों का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। महाभारत काल में कृषि के लिए वर्षा का जल सर्वोत्तम साधन माना जाता था। इस सन्दर्भ में महर्षि व्यास द्वारा शुकदेव के प्रति सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम के वर्णन में वर्षा के महत्व का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार वर्षा द्वारा स्थावर तथा जङ्गम पदार्थ वृद्धि को प्राप्त करते हैं तथा वर्षा बीतने पर उनका हास भी होता है। 

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में वर्षा पर कृषि प्रक्रिया निर्भर थी। इस सन्दर्भ में भीष्म द्वारा राजा के मित्र तथा अमित्र के वर्णन में प्रकारान्तर से यह उल्लेख मिलता है कि वर्षा का जल जिसके खेत से होकर दूसरे के खेत में जाता है, उसकी इच्छा के बिना उसके खेत की आड़ या मेड़ को नहीं तोड़ना चाहिए। इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि कृषि में वर्षा का जल विशेष महत्वपूर्ण माना जाता था तथा कृषि हेतु खेतों में मेड़ बनाकर जल तथा मृदा का संरक्षण भी किया जाता था।

महाभारत काल में कृषि विज्ञान अत्यन्त विकसित था। अतः सिंचाई के लिए कुएं, तालाब, पोखर आदि भी प्रयोग किये जाते थे। इस सन्दर्भ में अनुशासन पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर से प्रजा की रक्षा हेतु दिये गये उपदेश में यह उल्लेख मिलता है कि पानी न बरसने पर जब प्रजा कुआं खोदकर किसी तरह सिंचाई करके कुछ अन्न पैदा करे और उसी से जीविका चलाये तो राजा को वह धन नहीं लेना चाहिए। इस वर्णन में स्पष्ट रूप से कुएं द्वारा सिंचाई करने की बात कही गयी है। कृषि हेतु सिंचाई करने के साधन में जलाशय तथा पोखर आदि भी महत्वपूर्ण माने

यथा विश्ववानि भूतानि वृष्टया भूयांसि प्रावृषि।
सृज्यन्ते जङ्गमस्थानि तथा धर्मा युगे युगे।।
महा. भा. शान्ति पर्व. 232.39
यस्य क्षेत्रादप्युदकं क्षेत्रमन्यस्य गच्छति ।
यमेवलक्षणं विधात् तममित्रं विनिर्दिशेत् ।।
महा. भा. शान्ति पर्व 80.14-15 ३
वृद्ध बालधनं रक्ष्यमन्धस्य कृपणस्य च। न खातपूर्वं कुर्वीत न रूदन्ती धनं हरेत् ।।
महा. भा. अनु. पर्व. 62.25


गये हैं। इस सन्दर्भ में अनुशासन पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रति जलाशय तथा पोखर आदि बनवाने के लाभों की विस्तृत विवेचन किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि उस काल में जलाशय, पोखर आदि द्वारा कृषि की जाती थी।

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