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अक्ष्युपनिषद् द्वितीय खण्ड मंत्र १ से २४ संस्कृत हिन्दी अनुवाद द्वितीय खण्डः - उपनिषद के सूत्र 11 मुख्य उपनिषद

 अक्ष्युपनिषद् द्वितीयः खण्डः मंत्र १ से २४ संस्कृत हिन्दी अनुवाद
द्वितीयः खण्डः॥


अथ ह सांकृतिरादित्यं पप्रच्छ भगवन्ब्रह्मविद्यां मे ब्रूहीति। तमादित्यो होवाच। सांकृते श्रृणु वक्ष्यामि तत्त्वज्ञानं सुदुर्लभम्। येन विज्ञातमात्रेण जीवन्मुक्तो भविष्यसि॥१॥


अक्ष्युपनिषद्-द्वितीय-खण्ड-मंत्र-१-से-२४-संस्कृत-हिन्दी-अनुवाद


उसके बाद सांकृति ऋषि ने भगवान सूर्य से कहा-भगवन् ! मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश करें। आदित्य देव ने उनसे कहा-सांकृते । आपसे अतिदुर्लभ तत्त्वज्ञान का विवेचन मैं करने जा रहा हूँ. उसे ध्यान से सुनें, जिसका ज्ञान प्राप्त कर लेने पर आप जीवन्मुक्त हो जाएंगे॥१॥



सर्वमेकमजं शान्तमनन्तं ध्रुवमव्ययम्। पश्यम्भूतार्थचिद्रूपं शान्त आस्व यथासुखम्॥२॥

अवेदनं विदुर्योगं चित्तक्षयमकृत्रिमम्। योगस्थः कुरु कर्माणि नीरसो वाथ मा कुरु ॥३

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2


आप समस्त प्राणिमात्र को एक, अजन्मा, शान्त, अनन्त, ध्रुव, अव्यय तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्यरूप देखते हए शान्ति और सुखपूर्वक रहें। अवेदन अर्थात आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का आभास न हो-इसी का नाम योग है, यही यथार्थ चित्तक्षय है। इसलिए योग में स्थित होकर कर्त्तव्य कर्मों का निर्वाह करें, कर्म करते हुए नीरसता-विरक्तता न आने पाए ॥२-३॥



विरागमुपयात्यन्तर्वासनास्वनुवासरम् । क्रियासूदाररूपासु क्रमते मोदतेऽन्वहम्।।४।।

ग्राम्यासु जडचेष्टासु सततं विचिकित्सते । नोदाहरति मर्माणि पुण्यकर्माणि सेवते।।५।।


(अवेदन-योग की पहली भमिका इस प्रकार है-) योग की ओर प्रवृत्त होने पर अंतःकरण दिन-प्रतिदिन वासनात्मक चिन्तन से दूर होता जाता है। साधक नित्य ही परमार्थ कर्मों को करता हुआ हर्ष का अनभव करता है। जड़ मनुष्यों को अश्लील भोग प्रवृत्तियों (ग्राम्य चेष्टाओं) से वह हमेशा जुगुप्सा (घृणा) करता है। किसी के गुप्त रहस्य प्रसंग को अन्यों के समक्ष नहीं कहता, अपितु वह पुण्य कृत्यों में ही हमेशा संलग्र रहता है। ४-५॥



अनन्योद्वेगकारीणि मदकर्माणि सेवते । पापाद्विभेति सततं न च भोगमपेक्षते ॥६॥

स्नेहप्रणयगर्भाणि पेशलान्युचितानि च । देशकालोपपन्नानि वचनान्यभिभाषते ॥७॥



जिन कृत्यों से किसी प्राणी को उत्तेजित न होना पड़े, ऐसे दया और उदारतापूर्ण सौम्य कर्मों को वह करता है। वह पाप से भयभीत रहता और भोग साधनों की अभिलाषा नहीं करता। वह ऐसी वाणी का प्रयोग करता है, जिसमें सहज स्नेह और प्रेम का प्राकट्य हो तथा जो मृदुल और औचित्यपूर्ण होने के साथ-साथ देश, काल, पात्र के अनुकूल हो।।६-७॥


मनसा कर्मणा वाचा सज्जनानुपसेवते । यतःकुतश्चिदानीय नित्यं शास्त्राण्यवेक्षते॥८॥


मन से, वचन से और कर्म से श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करते हुए जहाँ कहीं से भी प्राप्त हो सके, प्रतिदिन सद्ग्रन्थों का अध्ययन करता है॥ ८॥


तदासौ प्रथमामेकां प्राप्तो भवति भूमिकाम्। एवं विचारवान्यः स्यात्संसारोत्तारणं प्रति॥९॥

स भूमिकावानित्युक्तः शेषस्त्वार्य इति स्मृतः। विचारनाम्नीमितरामागतो योगभूमिकाम्॥१०॥

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2



इस स्थिति में ही वह प्रथम भूमिका वाला कहलाता है। भवसागर से उस पार जाने की जो अभिलाषा करता है, वही इस प्रकार के विचार को प्राथमिकता देता है। वह भूमिकावान् कहा जाता है और शेष 'आर्य'(दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ) कहे जाते हैं। जो योग की दूसरी विचार भूमिका से युक्त हैं, (उनके लक्षण इस प्रकार से हैं-)॥९-१०॥


श्रुतिस्मृतिसदाचारधारणाध्यानकर्मणः । मुख्यया व्याख्यया ख्याताञ्छ्रयति श्रेष्ठपण्डितान्॥११॥


वह ऐसे ख्यातिलब्ध श्रेष्ठ विद्वानों का आश्रय ग्रहण करता है, जो श्रुति, स्मृति, सदाचार, धारणा और ध्यान की उत्तम व्याख्या के लिए अधिक चर्चित हों ॥११॥



पदार्थप्रविभागज्ञः कार्याकार्यविनिर्णयम्। जानात्यधिगतश्चान्यो गृहं गृहपतिर्यथा ॥१२॥

मदाभिमानमात्सर्यलोभमोहातिशायिताम्। बहिरप्यास्थितामीषत्त्यजत्यहिरिव त्वचम्॥ १३॥

इत्थंभूतमति: शास्त्रगुरुसज्जनसेवया । सरहस्यमशेषेण यथावदधिगच्छति ॥१४॥

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2


वह पदार्थों के विभाग और पद को उचित रीति से जानता है तथा श्रवण करने योग्य सतशास्त्रों में पारंगत हो जाने पर कर्त्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कुशल हो जाता है। मद, अहंकार, मात्सर्य, लोभ और मोहादि की अधिकता उसके चित्त को डांवाडोल नहीं करती, बाह्य आचरण में यत्किंचित् यदि उसकी स्थिति रहती है, तो उसका भी उसी प्रकार परित्याग कर देता है, जैसे साँप अपनी केंचुल को छोड़ देता है। इस प्रकार का सद्ज्ञान सम्पन्न साधक शास्त्र, गुरु और सत्पुरुषों के सेवा-सहयोग द्वारा रहस्यपूर्ण गूढ़ज्ञान को भी प्रयत्नपूर्वक स्वाभाविक रूप में हस्तगत कर लेता है ॥१२-१४॥



असंसर्गाभिधामन्यां तृतीयां योगभूमिकाम्। तत: पतत्यसौ कान्तः पुष्पशय्यामिवामलाम्॥१५

यथावच्छास्त्रवाक्यार्थे मतिमाधाय निश्चलाम्। तापसाश्रमविश्रान्तैरध्यात्मकथनक्र मैः ॥१६॥

शिलाशय्याऽऽसनासीनो जरयत्यायुराततम्। वनावनिविहारेण चित्तोपशमशोभिना ॥१७॥

असङ्गसुखसौख्येन कालं नयति नीतिमान्। अभ्यासात्साधुशास्त्राणां करणात्पुण्यकर्मणाम्॥ जन्तोर्यथावदेवेयं वस्तुदृष्टिः प्रसीदति। तृतीयां भूमिकां प्राप्य बुद्धोऽनुभवति स्वयम् ॥ १९॥

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2



इसके पक्षात् वह योग की असंसर्गनाम्री तीसरी भूमिका में प्रवेश करता है-ठीक उसी प्रकार, जैसे कोई सुन्दर मनुष्य साफ-सुथरे फूलों के बिछौने पर अवस्थित होता है। शास्त्र जैसा अभिमत व्यक्त करते हैं, उसमें अपनी स्थिर मति को संयुक्त करके, तपस्वियों के आश्रम में वास करता हुआ अध्यात्म शास्त्र की चर्चा करते हए (कष्टकर) पाषाण-शय्या पर आरूढ़ होते हुए ही वह सम्पूर्ण आयु बिता देता है।


वह नीति पुरुष चित्त को शान्ति पहुंचाने वाले अधिक शोभाप्रद वन भूमि के विहार द्वारा विषयोपभोग से विरत होकर स्वाभाविक रूप में उपलब्ध सुख-साधनों को भोगता हुआ अपना जीवनयापन करता है। सद्ग्रन्थों के अभ्यास और पुण्य कर्मों के किये जाने से प्राणी की वास्तविक पर्यवेक्षण दृष्टि पवित्र होती है। इस तृतीय भूमिका को प्राप्त करके साधक स्वयमेव ज्ञानवान् होकर इस स्थिति का अनुभव करता है। १५-१९॥



द्विप्रकारमसंसर्गं तस्य भेदमिमं श्रृणु । द्विविधोऽयमसंसर्ग: सामान्यः श्रेष्ठ एव च ॥२०॥

नाहं कर्ता न भोक्ता च न बाध्यो न च बाधकः । इत्यसंजनमर्थेषु सामान्यासङ्गनामकम्॥२१॥

प्राक्कर्मनिर्मितं सर्वमीश्वराधीनमेव वा । सुखं वा यदि वा दुःखं कैवात्र मम कर्तृता ॥ २२॥

भोगाभोगा महारोगाः संपदः परमापदः । वियोगायैव संयोगा आधयो व्याधयोऽधियाम्॥२३॥

कालश्च कलनोद्युक्तः सर्वभावाननारतम्।अनास्थयेति भावानां यदभावनमान्तरम्।वाक्यार्थलब्धमनसः सामान्योऽसावसङ्गमः॥ २४॥


असंसर्ग-सामान्य और श्रेष्ठ भेद से दो तरह का है। (उनके इस प्रकार के भेदों पर अब प्रकाश डालते है-) में न तो कर्ता, न भोक्ता, न बाध्य और न बाधक ही हैं- इस प्रकार से विषयोपभोग में आसक्ति से रहित होने की भावना ही सामान्य असंसर्ग कहलाती है।


सब कुछ पूर्वजन्म कृत कर्मों का प्रतिफल है या सब कुछ परमात्मा के अधीन है-ऐसी मान्यता रखना, सुख हो या दुःख इसमें मेरे किये गये कार्यों का अस्तित्व ही क्या है? भोगसाधनों का अतिसंग्रह महारोगरूप है और समस्त वैभव परम आपत्तियों के स्वरूप हैं।


सभी संयोगों की अन्तिम परिणति वियोग के रूप में है। मानसिक चिन्ताएँ अज्ञानग्रस्तों के लिए व्याधिरूप हैं। सभी क्षणभंगुर पदार्थ अनित्य हैं, सभी को काल-कराल अपना ग्रास बनाने में संलग्न है। (शास्त्रवचनों को जान लेने से उत्पन्न) अनास्था से मन में उनके अभाव की भावना को पैदा करता है, यह सामान्य असंसर्ग कहलाता है। २०-२४॥

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