भारतीय दर्शन में योग का महत्व
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
patanjali darshan
योग-दर्शन का बीज सूक्त
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महर्षि पतञ्जलि-
महर्षि पतञ्जलि कृत पतञ्जलि योग-दर्शन' आत्म-भू-योग दर्शन है। यह अनन्य, अनूठा और अनुपमेय योग-दर्शन, जो अपने लिए आप ही प्रमाण है। इस अपूर्व और अद्भुत ग्रंथ के समान अन्य कोई यौगिक ग्रंथ है ही नहीं। एक तरह से इसे प्रकृति की अद्भुत और चमत्कृत घटना कह सकते हैं। पतञ्जलि योग-दर्शन प्रामाणिक व अद्वितीय योग-दर्शन ग्रंथ है। यह वैज्ञानिक भाषा में लिखा गया अध्यात्म है। अष्टांग योग के प्रथम पाँच चरणों में मानव देह के सुप्त बिंदुओं को जाग्रत् कर तन को प्राणायाम से शुद्ध, स्वस्थ और नीरोगी करना है। धारणा, ध्यान, समाधि-यह अंतर्मन की चित्तवृत्तियों का दर्शन और निर्मलीकरण है। कल्पों पूर्व अभूतपूर्व प्रज्ञा दृष्टि से ऋषियों की अंतश्चेतना में अनुभूत शाश्वत सत्य कितने सार्थक और सटीक हैं। कदाचित् आज से अधिक इनकी उपादेयता कभी न रही होगी। यह सर्वथा कालातीत और कालजयी ग्रंथ त्रिकालदर्शी तत्त्वों का समीकरण है, जबकि हम केवल तत्कालदर्शी हैं। ऋषि पतञ्जलि कृत 'पतञ्जलि योग-दर्शन' के
यौगिक ग्रंथ में जो देह, मन, चित्त के गुण, स्वभाव और विकारों का विवेचन करते हुए चित्तवृत्तियों के पूर्ण संयम, निरोध, साधना और अंत में अपने कारण में विलीन को ही योग मानते हैं। योग प्रभाव और अव्यय (उत्पत्ति और लय) का स्थान है। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि महर्षि पतञ्जलि तन और मन दोनों के अध्येता
योग-दर्शन के साथ आयुर्वेद के चिकित्सा-शास्त्र के भी प्रणेता हैं। पाणिनि के व्याकरण का भाषा-भाष्य भी ऋषि पतञ्जलि का महा अद्भुत भाष्य है। अतः वे सृष्टि के चरमोत्कर्ष योगाचार्य, आयुर्वेदाचार्य और व्याकरणाचार्य हैं।प्राणायाम के द्वारा स्वस्थ तन के जो अकाट्य सूत्र दिए हैं, उन पर विज्ञान भी आज नतमस्तक हो गया है। स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन और स्वस्थ मन में ही स्वस्थ विचार-शुभ, शांत और प्राणायाम के द्वारा स्वस्थ तन के जो अकाट्य सूत्र दिए हैं,
उन पर विज्ञान भी आज नतमस्तक हो गया है। स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन और स्वस्थ मन में ही स्वस्थ विचार-शुभ, शांत और सात्त्विक जीवन-शैली का यही सार योग-दर्शन का ज्ञान है। एक बृहत्तम, एक महत्तम, एक अनन्यतम, प्राण विज्ञान, जो प्राण वायु से प्राणाधार तक ही पूरा होता है। इसका प्रथम सूक्त 'अथ योगानुशासनम्' एक औपचारिक आरंभिक विषय-परक उद्बोधन तो है, किंतु इसका दूसरा सूक्त'
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥2॥
और तीसरा सूक्त 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेवस्थानम् ॥3॥
ही मूल केंद्र सूक्त है, जिसकी परिधि में संपूर्ण योग-दर्शन परिक्रमायित है। योग-दर्शन वस्तुतः ही मूल केंद्र सूक्त है, जिसकी परिधि में संपूर्ण योग-दर्शन परिक्रमायित है। योग-दर्शन वस्तुतः इन्हीं दो सूक्तों का विस्तार है। यही वे केंद्र सूक्त हैं, जिनके चारों ओर साधक की-जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण भूत, वर्तमान, भविष्य, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार की मनोदशाएँ, भावित भावनाओं की संचेतना परिक्रमा करती हैं, जो योग-दर्शन के अंतिम मंत्र प्रति प्रसवः कैवल्यं स्वरूप प्रतिष्ठा वाचितिशक्तेरिति-कैवल्यपाद 34 तक जाकर अपने कारण में विलीन हो जाती हैं।
अर्थात् इंद्रियों, मन, चित्त शक्ति का अपने कारण में विलीन होने तक की यात्रा ही योग-दर्शन का कथ्य और तथ्य विषय हैं। यही कैवल्य है, यही मोक्ष है, यही निर्वाण है, यही मुक्ति है। कारण में विलीन, अर्थात् चित्तवृत्ति का मूल उद्गम में लीन होना, अर्थात् अपने निज स्वरूप में स्थित होना है। वस्तु सब अपनी-अपनी हो जाएँ तो कौन किसका स्वामी और कौन किसका दास है? चित्तवृत्तियों के संयम और निरोध के बाद ही द्रष्टा अपने निज सत्य स्वरूप में अवस्थित हो पाता है। कर्ता, कर्म, कारण -द्रष्टा, दृश्य, दृग-ग्राह्य, ग्रहण, गृहीता-सभी से निबंध हुआ अपने कारण में विलीन यही बंधन-मुक्त अवस्था है। योग-दर्शन' का मंतव्य, गंतव्य और प्रतिपाद्य विषय अपने सत्य स्वरूप कारण में लीन होकर निबंध होना है।
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