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vedant darshan adhyay 1 paad 1 वेदान्त-दर्शन


श्रीपरमात्मने नमः

vedant darshan adhyay 1 paad 1 mantra veda religion

वेदान्त-दर्शन पहला अध्याय, पहला पाद




अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥ १।१ । १॥
अथ अब; अतः यहॉसे ब्रह्मजिज्ञासा ब्रह्मविषयक विचार ( आरम्भ किया जाता है)।

व्याख्या- इस सूत्रमे ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ करनेकी बात कहकर यह सूचित किया गया है कि ब्रह्म कौन है ?उसका खरूप क्या है ? वेदान्तमे उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है, इत्यादि सभी ब्रह्मविषयक बातोंका इस ग्रन्थ मे विवेचन किया जाता है।



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सम्बन्ध- पूर्व सूत्र में जिस ब्रह्मके विषय में विचार करनेकी प्रतिज्ञा की गयी है, उसका लक्षण बतलाते हैं,
vedant darshan adhyay 1 paad 1 mantra veda religion 


जन्माद्यस्य यतः ॥ १।१ । २॥

व्याख्या- यह जो जड़-चेतनात्मक जगत् सर्वसाधारणके देखने, सुनने और अनुभवमें आ रहा है, जिसकी अद्भुत रचनाके किसी एक अंशपर भी विचार करनेसे बड़े-बड़े वैज्ञानिकोको आश्चर्यचकित होना पड़ता है, इस विचित्र विश्वके जन्म आदि जिससे होते है अर्थात् जो सर्वशक्तिमान् परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्तिसे इस सम्पूर्ण जगत्की रचना करता है, इसका धारण, पोषण तथा नियमितरूपसे सञ्चालन करता है। फिर प्रलयकाल आनेपर जो इस समस्त विश्वको अपनेमें विलीन कर लेता है, वह परमात्मा ही ब्रह्म है। भाव यह है कि देवता, दैत्य, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक जीवो से परिपूर्ण, सूर्य, चन्द्रमा, तारा तथा नाना लोक-लोकान्तरोसे सम्पन्न इस अनन्त ब्रह्माण्डका कर्ता-हर्ता कोई अवश्य है, यह हरेक मनुष्यकी समझमे आ सकता है; वही ब्रह्म है। उसीको परमेश्वर, परमात्मा और भगवान् आदि विविध नामोसे कहते हैं,क्योकि वह सबका आदि, सबसे बड़ा, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वव्यापी और सर्वरूप है । यह दृश्यमान जगत् उसकी अपार शक्तिके किसी एक अंशका दिग्दर्शनमात्र है।


शङ्का- उपनिषदोमे तो ब्रमका वर्णन करते हुए उसे अकर्ता, अभोक्ता, असङ्ग, अव्यक्त, अगोचर, अचिन्त्य, निर्गुण, निरञ्जन तथा निर्विशेष बताया गया है और इस सूत्रमें उसे जगतकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कर्ता बताया गया है । यह विपरीत बात कैसे ?

समाधान- उपनिषदोमे वर्णित परब्रह्म परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत्का कर्ता होते हुए भी अकर्ता है (गीता ४ । १३) । अतः उसका कर्तापन साधारण जीवोकी भाँति नहीं है। सर्वथा अलौकिक है । वह सर्वशक्तिमान्*एवं सर्वरूप होनेमे समर्थ होकर भी सबसे सर्वथा अतीत और असङ्ग है । सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी निर्गुण है। तथा समस्त विशेषणोसे युक्त होकर भी निर्विशेष है । इस परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च । (श्वेता० ६ । ८) इस परमेश्वरकी ज्ञान, बल और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है। एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षःसर्वभूताधिवासः साक्षी नेता केवलो निर्गुणश्च ॥ (श्वेता० ६.११) 'वह एक देव ही सब प्राणियोमे छिपा हुआ, सर्वव्यापी और समस्त प्राणियोंका अन्तर्यामी परमात्मा है। वही सबके कर्मोंका अधिष्ठाता, सम्पूर्ण भूतोका निवास स्थान, सबका साक्षी, चेतनस्वरूप, सर्वथा विशुद्ध और गुणातीत है। एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्॥ ( मा० उ० ६) "यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह सबका अन्तर्यामी है, यह सम्पूर्ण जगत्का कारण है, क्योकि समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलयका स्थान यही है। नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञंनाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्य प्रकार उस सर्वशक्तिमान् परब्रह्म परमेश्वरमे विपरीत भावोका समावेश स्वाभाविक होनेके कारण यहाँ शङ्काके लिये स्थान नहीं है।


सम्बन्ध- कपिन और भोक्तापनसे रहित, नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्मको इस जगत्का कारण कैसे माना जा सकता है ? इसपर कहते है


शास्त्रयोनित्वात् ॥ १।१।३ ॥

शास्त्रयोनित्वात् शास्त्र (वेढ.)मे उस ब्रह्मको जगत्का कारण बताया गया है, इसलिये ( उसको जगतका कारण मानना उचित है)।

व्याख्या- वेदमे जिस प्रकार ब्रह्मके सत्य, ज्ञान और अनन्त (तै० उ० . २११) आदि लभग बताये गये हैं, उसी प्रकार उसको जगत्का कारण भी बताया गया है। इसलिये पूर्वसूत्रके कथनानुसार परब्रह्म परमेश्वरको जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका कारण मानना सर्वथा उचित ही है।


सम्बन्ध- मृत्तिका आदि उपादानोंसे घट आदि वस्तुओंकी रचना करने वाले कुम्भकार आदिकी मॉति ब्रह्मको जगतका निमित्त कारण बतलाना तो युक्तिसङ्गत है परन्तु उसे उपादान कारण कैसे माना जा सकता है ? इसपर कहते हैं


तत्तु समन्वयात् ॥ १।१ । ४ ॥ vedant darshan adhyay 1 paad 1 mantra veda religion

बहार्यमग्राहामलक्षणमचिन्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैत चतुर्थ मन्यन्ते स आन्मा स विज्ञेयः ॥ (मा० उ० ७) जो न भीतरकी और प्रजावाला है, न बाहरकी ओर प्रजाचाला है। न दोनो ओर प्रनावाला है, न प्रजानधन है, न जाननेवाला है, न नही जाननेवाला है, जो देखा नहीं गया है, जो व्यवहारम नहीं लाया जा मकता, जो पकड़नेमे नहीं आ सकता जिसका कोई लक्षण नहीं है, जो चिन्तन करने नहीं आ सकता जो बतलानेमे नही आ सकता, एकपात्र आत्माकी प्रतीति ही जिमका सार है, जिसमें प्रपञ्चका सर्वथा अभाव है, ऐसा सर्वथा शान्त, कल्याणमय, अद्वितीय तत्व परब्रह्म परमात्माका नतुर्थ पाट है, इस प्रकार ब्रह्मनानी मानते हैं। वह परमात्मा है, यह जाननेयोग्य है। एप योनिः सर्वस्या (मा० उ०६) यह परमात्मा सम्पूर्ण जगत्का कारण हैं। 

व्याख्या- जिस प्रकार अनुमान और शास्त्र-प्रमाणसे यह सिद्ध होता है कि इस विचित्र जगतका निमित्त कारण परब्रह्म परमेश्वर है, उसी प्रकार यह भी सिद्ध है कि वही इसका उपादान कारण भी है; क्योकि वह इस जगतमे पूर्णतया अनुगत ( व्याप्त ) है, इसका अणुमात्र भी परमेश्वरसे शून्य नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीतामे भी भगवान्ने कहा है कि 'चर या अचर, जड या चेतन, ऐसा कोई भी प्राणी या भूतसमुदाय नहीं है, जो मुझसे रहित हो।' (१० । ३९) "यह सम्पूर्ण जगत् मुझसे च्याप्त है।' (गीता ९ । ४) उपनिषदोंमें भी स्थान-स्थानपर यह बात दुहरायी गयी है कि 'उस परब्रह्म परमेश्वरसे यह समस्त जगत् व्याप्त है ।


सम्बन्ध- सांख्यमतके अनुसार त्रिगुणात्मिका प्रति भी समस्त जगत्में व्याप्त है, फिर व्याप्तिरूप हेतुसे जगत्का उपादान कारण ब्रह्मको ही क्यों मानना चाहिये, प्रकृतिको क्यों नहीं ? इसपर कहते हैं


ईक्षते शब्दम् ॥ १।१। ५॥

ईक्षतेः श्रुतिमे ईक्ष' धातुका प्रयोग होनेके कारण; अशब्दम-शब्द प्रमाण-शून्य प्रधान -( त्रिगुणात्मिका जड प्रकृति); न-जगतका कारण नहीं है ।

व्याख्या- उपनिषदोमे जहाँ सृष्टिका प्रसङ्ग आया है, वहाँ ईक्ष' धातुकी क्रियाका प्रयोग हुआ है,जैसे सदेव सोम्येदमन आसीदेकमेवाद्वितीयम्' (छा० उ० ६ । २ । १ ) इस प्रकार प्रकरण आरम्भ करके 'तदक्षत बहु स्यां प्रजा येय' (छा० उ०६।२। ३) अर्थात् उस सत्ने ईक्षण सङ्कल्प किया कि मै बहुत हो जाऊँ, अनेक प्रकारसे उत्पन्न होऊँ ।ऐसा कहा गया है। इसी प्रकार दूसरी जगह भी आत्मा वा इदमेकमेवान आसीत्' इस प्रकार आरम्भ करके ‘स ईक्षत लोकान्नु सृजै' (ऐ० उ०१ । १ । १) अर्थात् उसने ईक्षण विचार किया कि निश्चय ही मै लोकोकी रचना करूँ । ऐसा कहा है। परन्तु त्रिगुणात्मिका प्रकृति जड है, उसमे ईक्षण या सङ्कल्प नहीं ईशावास्यमिदय सर्वयत्किञ्च जगत्यां जगत् । (ईशा० १) बन सकता, क्योकि वह चेतनका धर्म है; अतः शब्दप्रमाणरहित प्रधान (जड प्रकृति ) को जगत्का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।


सम्बन्ध- ईक्षण या सङ्कल्प चेननका धर्म होनेपर भी गौणीवृत्तिसे अचेतन के लिये प्रयोगमें लाया जा सकता है, जैसे लोकमें कहते है 'अमुक मकान अब गिरना ही चाहता है। इसी प्रकार यहाँ भी ईक्षण-क्रियाका सम्बन्ध गौणरूपसे त्रिगुणात्मिका जड प्रकृतिकेसाथ मान लिया जाय तो क्या हानि है । इसपर कहते हैं


गौणश्वेन्नात्मशब्दात् ॥ १।१।६॥
चेत् यदि कहो गौणः ईक्षणका प्रयोग गौगवृत्तिसे (प्रकृतिके लिये) हुआ है; ननो यह ठीक नहीं है; आत्मशब्दात्=क्योकि वहाँ 'आत्म'शब्दका प्रयोग है।

व्यास्या- ऊपर उद्धृत की हुई ऐतरेयकी श्रुतिमे ईक्षणका कर्ता आत्माको बताया गया है। अतः गौण-वृत्तिसे भी उसका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ नहीं हो सकता । इसलिये प्रकृतिको जगत्का कारण मानना वेदके अनुकूल नहीं है।

सम्बन्ध- आत्म' शब्दका प्रयोग तो मन, इन्द्रिय और शरीरके लिये भी आता है; अतः उक्त श्रुतिमें 'आत्मा' को गीणरूपसे प्रकृतिका वाचक मानकर उसे जगतका कारण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? इसपर कहते हैं


तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ॥ १।१।७॥

व्याख्या- तैत्तिरीयोपनिषद्की दूसरी बल्लीके सातवे अनुवाकमे जो सृटिका . प्रकरण आया है, वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि 'तदात्मान खयमकुरुत उस ब्रह्मने खयं ही अपने आपको इस जड-चेतनात्मक जगत्के रूपमे प्रकट किया ।साथ ही यह भी बताया गया है कि यह जीवात्मा जब उस आनन्दमय परमात्मामे निष्टा करता-स्थित होता है, तब यह अभय पदको पा लेता है । इसी प्रकार छान्दोग्योपनिपभ भी श्वेतकेतुके प्रति उसके पिताने उस परम कारणमे स्थित हानेका फल मोक्ष बताया है। किन्तु प्रकृतिमे स्थित होनेसे मोक्ष होना कदापि सम्भव नहीं है, अतः उपर्युक्त श्रुतियोंमे आत्मा शब्द प्रकृतिका वाचक नहीं है। इसीलिये प्रकृतिको जगत्का कारण नहीं माना जा सकता ।


सम्बन्ध- उक्त श्रुतियों में आया हुआ 'आत्मा' शब्द प्रकृतिका वाचक नहीं हो सकता, इसमें दूसरा कारण बतलाते हैं,

हेयत्वावचनाच ॥ १।१।८॥

व्याख्या- यदि आत्मा शब्द वहाँ गौणवृत्तिसे प्रकृतिका वाचक होता तो आगे चलकर उसे त्यागनेके लिये कहा जाता और मुख्य आत्मामें निष्ठा करनेका उपदेश दिया जाता; किन्तु ऐसा कोई वचन उपलब्ध नहीं होता है। जिसको जगतका कारण बताया गया है, उसीमें निष्ठा करनेका उपदेश किया गया है। अतः परब्रह्म परमात्मा ही आत्म'शब्दका वाच्य है और वहीं इस जगतका निमित्त एवं उपादान कारण है।


सम्बन्ध- आत्मा' की ही भॉति इस प्रसङ्गमें 'सत्' शब्द भी प्रकृतिका वाचक नहीं है। यह सिद्ध करने के लिये दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं


स्वाप्ययात् ॥ १।१। ९॥

व्याख्या- छान्दोग्योपनिषद् (६ । ८।१ ) मे कहा है कि 'यत्रैतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनर खपितीत्याचक्षते' अर्थात् 'हे सोम्य ! जिस अवस्थामे यह पुरुष ( जीवात्मा ) सोता है, उस समय यह सत् ( अपने कारण ) से सम्पन्न ( संयुक्त ) होता है; स्व अपनेमें अपीत-विलीन होता है, इसलिये इसे 'स्वपिति' कहते हैं। यहाँ स्व (अपने) में विलीन होना कहा गया है। अतः यह सन्देह हो सकता है कि 'स्व' शब्द जीवात्माका ही वाचक है, इसलिये वही जगत्का कारण है, परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योकि पहले जीवात्माका सत् ( जगत्के कारण) से संयुक्त होना बताकर उसी सत्को पुनः 'ख' नामसे कहा गया है और उसीमे जीवात्माके विलीनइस प्रसङ्गमे जिस सत्को समस्त जगतका कारण बताया है, उसीमे जीवात्माका विलीन होना कहा गया है, और उस सत्को उसका खखरूप बताया गया है । अत. यहाँ 'सत्' नामसे कहा हुआ जगत्का कारण जडतत्त्व नहीं हो सकता।

सम्बन्ध- यही बात प्रकारान्तरसे पुनः सिद्ध करते है vedant darshan adhyay 1 paad 1 mantra veda religion

गतिसामान्यात् ॥ १।१।१०॥

व्याख्या- तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: संभूतः' (तै० उ० २११) 'निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्ध इस परमात्मासे आकाश उत्पन्न हुआ आत्मत एवेदः, सर्वम्' (छा० उ०७ | २६ । १)-'परमात्मासे ही यह सब कुछ उत्पन्न हुआ है। आत्मन एप प्राणी जायते' (प्र० उ० ३ । ३)-परमात्मासे यह प्राग उत्पन्न होता है । एतस्माजायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वार्कोतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी । (मु० उ० २।१ । ३)-इस परमेश्वरने प्राण उत्पन्न होना है; तथा मन ( अन्तःकरण ) समस्त इन्द्रियाँ, आकाश, वायु. तेज, जल और सम्पूर्ण प्राणियोको धारण करनेवाली पृथिवी-ये सब उत्पन्न होते है। इस प्रकार सभी उपनिषद्- वाक्योमे समानरूपसे चेतन परमात्माको ही जगत्का कारण बताया गया है। इसलिये जड प्रकृतिको जगतका कारण नहीं माना जा सकता ।


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