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महाभारत काल में प्रकाश विज्ञान (Light), ! प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, मयदानव द्वारा निर्मित उस अद्भुत सभा का वर्णन

महाभारत काल में प्रकाश विज्ञान (Light), ! प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, प्रकाश वह कारक है जिससे वस्तुएं दिखाई देती हैं। प्रकाश से सम्बन्धित रहस्यों तथा विशेषताओं का ज्ञान प्राचीन काल के विद्वानों को भलीभाँति था।



प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो दृष्टि को संवेदना देती है। अंधेरे में रखी वस्तुएं प्रकाश पड़ने पर ही दिखाई देती है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि "प्रकाश वह कारक है जिससे वस्तुएं दिखाई देती हैं। प्रकाश से सम्बन्धित रहस्यों तथा विशेषताओं का ज्ञान प्राचीन काल के विद्वानों को भलीभाँति था। महर्षि व्यास ने महाभारत में अनेक स्थानों पर प्रकाश से जुड़े रहस्यों का उद्घाटन किया है। महाभारत के वन पर्व में रेगिस्तान की मरीचिका का उल्लेख मिलता है। इस सन्दर्भ में वन पर्व में द्रौपदी द्वारा दुःख से मोहित हो युधिष्ठिर को उलाहना देते हुए कथन है कि तत्त्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं, किन्तु अज्ञानियों के सामने किसी और ही रूप में भासित होते हैं। जैसे आकाशवाणी सूर्य की किरणें मरूभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। इस वर्णन में द्रौपदी, युधिष्ठिर को रेगिस्तान की मरीचिका का उदाहरण देते हुए समझा रही है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि रेगिस्तान की मरीचिका से तात्पर्य प्रकाश के पूर्ण आन्तरिक परावर्तन से है। यह एक वैज्ञानिक घटना है जिसमें सूर्य की किरणें मरूस्थल पर पड़ती हैं तो दूर से जल का आभास कराती हैं। इस घटना को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है।



रेगिस्तान की मरीचिका (Mirage) - उल्टा प्रतिबिम्ब


Mahabharat-Kaal-Mai-Light-Vigyan-in-Hindi


ग्रीष्म ऋतु का दोपहर में कभी-कभी रेगिस्तान में यात्रियों को दूर से पेड़ के साथ-साथ उसका उल्टा प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता है और उन्हें ऐसा भ्रम हो जाता है कि वहां कोई जल का तालाब है जिसमें पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है जबकि वास्तव में वहां कोई जल का तालाब नहीं होता। इसे रेगिस्तान की मरीचिका कहते हैं, दिन में सूर्य की गर्मी से रेगिस्तान की रेत गर्म हो जाती है तो रेत के Inferior Mirage DIrect sight सम्पर्क में आने वाली वायु गर्म तथा विरल हो जाती है। इसकी तुलना में इस पर्त के ऊपर की वायु की परत अपेक्षाकृत ठण्डी और सघन होती है। दूसरे शब्दों में इससे कुछ ऊपर तक वायु की विभिन्न परतें नीचे की परतों की अपेक्षा सघन तथा ऊपर से नीचे की ओर वायु की विभिन्न परतें नीचे की परतों की अपेक्षा सघन तथा ऊपर से नीचे की ओर वायु की विभिन्न परतें अपेक्षाकृत विरल होती हैं। जब किसी पेड़ की चोटी से आने


अन्यथा परिदृष्टानि मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः ।। महा. भा. वन पर्व. 30.33


वाली प्रकाश-किरणें पृथ्वी की ओर आती हैं तो उन्हें अधिकाधिक विरल परतों से होकर आना पड़ता है। प्रत्येक परत पर अपवर्तित किरणें अभिलम्ब से दूर हट जाती हैं। 


अतः हरेक अगली सतह पर आपतन कोण बढ़ता रहता है और एक विशेष सतह पर क्रान्तिक कोण से बड़ा हो जाता है। इन सतहों पर किरणें पूर्ण परावर्तित होकर ऊर्ध्व गमन करती हैं चूंकि ऊपर वाली परतें अधिकाधिक सघन हैं। अतः ऊर्ध्व गमन वाली किरणें अभिलम्ब की ओर नीचे जाती हैं। जब ये किरणें आंख में प्रवेश करती हैं तो उसे ये पृथ्वी के नीचे से आती प्रतीत होती है तथा यात्री को पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब (I) दिखाई देता है। जिससे वह समझता है कि प्रतिबिम्ब के बनने का कारण जल के द्वारा परावर्तन है तथा कुछ दूरी पर जल का तालाब है। इसे ही 'रेगिस्तान की मरीचिका कहते हैं। महाभारत के आदि पर्व में भी प्रकाश के पूर्ण आन्तरिक परावर्तन का एक और उदाहरण मिलता है। जिसके अनुसार दुर्योधन युधिष्ठिर के भवन को देखने आया। यह भवन मय नामक दानव ने बनाया था जिसमें अद्भुत वस्तुओं का निर्माण किया गया था।


उस भवन में जल की तरह दिखने वाले तालाब वास्तव में फर्श होते थे तथा फर्श दिखने वाले स्थान वास्तव में तालाब होते थे। अतः इस मायावी भवन को देखते-देखते दुर्योधन "जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम" करते हुए जल में गिर पड़ा और भीमसेन द्वारा अपमानित हुआ। महाभारत के आदि पर्व में उग्रश्रवा ऋषि, अन्य ऋषियों से महाभारत के अधिकांश विषयों को संक्षिप्त रूप में वर्णन करते हुए कथन है कि उसी सभा भवन में जल सम्भ्रम (जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम) होने के कारण दुर्योधन के पांव फिसलने से लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही भीमसेन ने उसे गंवार सा सिद्ध करते हुए उसकी हंसी उड़ायी थी।' यहाँ साङ्केतिक रूप में मरिचिका की घटना का बोध होता है।


तत्रावहसितश्चासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात् । प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत् ।। - महा. भा. आदि पर्व 1.136



इस सन्दर्भ में मयदानव द्वारा निर्मित उस अद्भुत सभा का वर्णन महाभारत के सभापर्व में विस्तृत रूप से मिलता है। वैशम्पायन ऋषि, द्वारा राजा जनमेजय से उस सभा का वर्णन करते हुए कथन है कि "मणियों तथा रत्नों से व्याप्त होने के कारण कुछ राजा उस पुष्करिणी के पास आकर और उसे देखकर भी उसकी यथार्थता पर विश्वास नहीं करते थे और भ्रम से उसे स्थल समझकर उसमें गिर पड़ते थे। इस वर्णन में जल को स्थल रूप में तथा स्थल को जल रूप में समझना प्रकाश के पूर्ण आन्तरिक परावर्तन पर ही निर्भर करता है। उस पुष्करिणी के पास जड़ित मणि तथा रत्न उस पर पड़ने वाले प्रकाश को पूर्ण रूप से परावर्तित करते होंगे तभी देखने वाले मनुष्य की आंखों में जल का स्थल रूप में तथा स्थल का जल रूप में भ्रम उत्पन्न हो जाता था। यह भी मरीचिका का ही उदाहरण प्रतीत होता है। अतः ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि वह मयदानव एक वैज्ञानिक सोच भी रखता था जो इस प्रकार की अद्भुत सभा का निर्माण करने में सफल हो सका। अतः ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महाभारत काल में प्रकाश के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान सर्वत्र प्रचलित था।

अक्ष्युपनिषद् द्वितीयः
काल क्या है?
महाभारत युग में काल गणना,
योग दर्शन सूत्र ०१ से ०८,
योग दर्शन सूत्र 13 से 19,
योग दर्शन सूत्र 20 से 26,
साधनपाद-२ सूत्र 1 से 5,
साधनपाद- सूत्र 5 से 13,
योग दर्शन सूत्र १४ से १८
sadhanpaad sutra 19 to 35,
सूत्र २७ से ३५,
प्राणायाम का सही क्रम, विधि, नियम,
विभूतिपाद सूत्र 1-13,
vibhutipaad sutra 14-18,
ऐतरेयोपनिषद प्रथम अध्याय तृतीय खण्ड मंत्र,
खण्डः मंत्र २५ से ४८
योग दर्शन सूत्र 08 से 12,
अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2
भगवान शिव के अनुसार पदार्थ क्या है?,
वेदान्त-दर्शन पहला अध्याय,
विज्ञान और पदार्थ की परिभाषा
शास्त्रों के अनुसार उत्क्षेप,
ऐतरेयोपनिषद् प्रथम खंड मंत्र ०१ से ०४,

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