Ad Code

Ticker

6/recent/ticker-posts

शास्त्रों के अनुसार बल (force), गुरूत्वाकर्षण बल (Gravitation), और उत्क्षेप उत्क्षेपण बल । यह संसार परिवर्तनशील है।

शास्त्रों के अनुसार बल (force), गुरूत्वाकर्षण बल (Gravitation), और उत्क्षेप उत्क्षेपण बल ।
महाभारत तथा बल (Force) 

शास्त्रों-के-अनुसार-बल-force-गुरूत्वाकर्षण-बल-Gravitation


यह संसार परिवर्तनशील है। मनुष्य के आस-पास के वातावरण में परिवर्तन प्रायः होता रहता है। यह परिवर्तन अधिकांशतः बल के कारण होता है जैसे - किसी वस्तु को बल लगाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाना। मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में बल का प्रयोग करता रहता है। अतः ‘बल वह बाह्य कारण है जो किसी वस्तु पर लगाने पर वस्तु की गति में परिवर्तन करता है।" बल के महत्व को जानते हुए प्राचीन ऋषियों तथा मुनियों ने वेद, रामायण, महाभारत आदि में इसका उल्लेख किया है। Science in Sanskrit, महाभारत के अनुशासन पर्व में बल को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। इस सन्दर्भ में भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर से परम शुद्धिदायक तीर्थों का वर्णन करते हुए कथन है कि "जैसे क्रियाहीन बल अथवा बलरहित क्रिया इस जगत् में कार्य का साधन नहीं कर सकती। बल और क्रिया दोनों के संयुक्त होने पर ही कार्य की सिद्धि होती है, इसी प्रकार शरीर-शुद्धि और तीर्थ शुद्धि से युक्त पुरूष ही पवित्र होकर परमात्म प्राप्ति रूप सिद्धि प्राप्त करता है। अतः दोनों प्रकार की शुद्धि ही उत्तम मानी गयी है।


इस वर्णन में महर्षि व्यास ने बल तथा क्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा है कि दोनों के संयुक्त होने पर ही कार्य की सिद्धि होती है। बल के द्वारा दैनिक कार्यों की सिद्धि प्रायः होती है। बल और क्रिया के द्वारा मनुष्य चलता, दौड़ता, उठता, बैठता आदि कार्य करता है। महाभारत में बल का प्रयोग अधिकांशतः युद्ध आदि के वर्णन में किया गया है। जैसे - बल, पराक्रम आदि के द्वारा युद्ध में शत्रु पर विजय पाना आदि । महाभारत के कर्ण पर्व में दुर्योधन शल्य को शिव के विचित्र रथ का विवरण सुनाता है जिसमें ब्रह्मदेव से प्राप्त वर का दुरूपयोग करके दानवों के उपद्रवों सेव्याकुल देवता, शिव भगवान के समीप जाते हैं तो शिवजी उनसे कहते हैं कि - देवताओं ! मेरा ऐसा विचार है कि तुम्हारे सभी शत्रुओं का वध किया जाय, परन्तु मैं अकेला ही उन सबको नहीं मार सकता, क्योंकि वे देशद्रोही दैत्य बड़े बलवान हैं। अतः तुम सब लोग एक साथ सङ्घ बनाकर मेरे आधे तेज से पुष्ट हो युद्ध में उन शत्रुओं को जीत लो क्योंकि जो संगठित होते हैं वे महान् बलशाली हो जाते हैं, देवता बोले - प्रभो ! युद्ध में हम लोगों का जितना भी तेज और बल है, उससे दूना उन दैत्यों का है, ऐसा हम मानते हैं क्योंकि उनके तेज और बल को हमने यथा


बलं क्रियाहीनं क्रिया वा बलवर्जिता। नेह साधयते कार्य समायुक्ता तु सिध्यति।। एवं शरीरशौचेन तीर्थशौचेन चान्वितः । शुचिः सिद्धिभवाप्नोति द्विविधं शौचमुक्तमम् ।। - महा. भा अनु. पर्व 108.20-21 देख लिया है।



इस वर्णन के अनुसार संगठित बल, एकाकी बल की अपेक्षा अधिक होता है। जैसे – यदि एक लकड़ी तोड़ी जाय तो कम बल लगता है और यदि लकड़ियों का संग्रह हो तो उसे तोड़ने में अधिक बल लगता है। अतः इससे प्रतीत होता है कि महाभारत काल में बल (Force) के गुणों से लोग भली-भाँति परिचित थे। भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत बल के दो अन्य प्रकार माने गए हैं - 


(क.) गुरूत्वाकर्षण (ख.) उत्क्षेप 


ब्रह्माण्ड में किन्हीं दो पिण्डों के बीच कार्य करने वाले आकर्षण बल को 'गुरूत्वाकर्षण बल कहते हैं तथा किसी वस्तु को जल में डुबोने पर जल के भीतर से उस वस्तु पर लगने वाले बल को 'उत्क्षेप' या 'उत्प्लावन' बल कहते हैं। यह बल वायु में भी लगता है।


(क.) गुरूत्वाकर्षण (Gravitation)

प्राचीन काल से ही ऋषियों, मनीषियों आदि विद्वानों ने प्रकृति के रहस्यों को समझने का प्रयास किया है। उनकी इस जिज्ञासु प्रवृत्ति ने ही उस काल की वैज्ञानिक पद्धति को श्रेष्ठ तथा अतुलनीय बना दिया है। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों, धर्मशास्त्रों तथा महाकाव्यों आदि में उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उल्लेख मिलता है। mahabharat physics science महर्षि वेद व्यास ने पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल का उल्लेख, महाभारत के शान्ति पर्व में किया है। इस पर्व में पञ्चमहाभूतों के गुणों का विस्तृत वर्णन भीष्म


 ते यूयं संहताः सर्वे मदीयेनार्धतेजसा । जयध्वं युधि ता शत्रून् संहताहि महाबलाः ।। अस्मतेजोबलं यावत् तावद्विगुणमाहवे। तेषामिति हिमन्यामो दृष्टतेजोबला हिते।। - महा. भा. कर्ण पर्व 34.6-8


द्वारा युधिष्ठिर के सम्मुख किया गया है, जिसमें पृथ्वी के दस गुणों का वर्णन मिलता है यथा

भूमेः स्थैर्य गुरूत्वं च काठिन्यं प्रसवार्थता। गन्धो गुरूत्वं शक्तिश्च संघातः स्थापना धृतिः।।


अर्थात् स्थिरता, भारीपन, कठिनता (कड़ापन), बीज को अङ्कुरित करने की शक्ति, गंध विशालता, शक्ति (गुरूत्व), संघात, स्थापना और धारण शक्ति – ये दस पृथ्वी के गुण हैं। इस वर्णन में भीष्म ने पृथ्वी के दस गुणों में से एक गुण शक्ति अर्थात् गुरूत्व शक्ति (गुरूत्वाकर्षण बल) का उल्लेख किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल से सभी भली-भाँति परिचित थे। महाभारत के भीष्म पर्व में गीता के उपदेशों में पृथ्वी की धारिता शक्ति (गुरूत्वाकर्षण बल) का वर्णन मिलता है। इस सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति कथन है कि - गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।'


अर्थात् हे अर्जुन ! मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ। इस वर्णन से यह प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही पृथ्वी की गुरूत्व शक्ति के रूप में विद्यमान हो सभी भूतों को धारण करते हैं। यहाँ भगवान के कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पृथ्वी में धारिता शक्ति है। इस गुरूत्व शक्ति के बिना प्राणी टिक ही नहीं सकते हैं। यहाँ पृथ्वी का पर्यायवाची 'गो' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है – 'गमन करने वाली' | अतः इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारतकार पृथ्वी की परिक्रमण गति और गुरूत्वाकर्षण शक्ति को भली-भाँति जानते थे।

महा. भा. शान्ति पर्व 255.3 2 महा. भा. भीष्म पर्व 39.13 (गीता. अ-15)


इस गुरूत्वाकर्षण शक्ति का स्पष्ट उल्लेख प्रश्नोपनिषद में प्राप्त होता है। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार, पृथिवी की शक्ति मनुष्य को खड़ा रहने में अपान वायु की सहायता करती है।' इस पर भाष्य लिखते हुए आदि शंकराचार्य ने लिखा है, यदि पृथिवी देवी इस शरीर को अपान वायु के द्वारा सहायता न करे तो यह शरीर या तो इस ब्रह्माण्ड में तैरेगा या फिर नीचे गिर जायगा। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि आदि शंकराचार्य का काल 7-9 वीं सदी माना गया है तो भी इससे भी बहुत पहले महाभारत काल में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ज्ञान विद्वानों को हो चुका था। जबकि आधुनिक वैज्ञानिक गुरूत्वाकर्षण बल की खोज का श्रेय न्यूटन (Newton) को देते हैं। न्यूटन ने "गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त” प्रतिपादित किया है जिसके अनुसार गुरूत्वाकर्षण बल को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है, 

प्रत्येक वस्तु छोटे-छोटे कणों से मिलकर बनी होती है। गुरूत्वाकर्षण के नियमानुसार पृथ्वी प्रत्येक कण को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करती है जिससे वस्तु पृथ्वी पर गिर पड़ती है। इस आकर्षण शक्ति को 'गुरूत्वाकर्षण बल' कहते हैं। न्यूटन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रिंसिपिया' (Principia - 1687) में गुरूत्वाकर्षण का नियम लिखा कि – “ब्रह्माण्ड में प्रत्येक पिण्ड दूसरे पिण्ड को अपनी ओर आकर्षित करता है।" न्यूटन के इस नियम का महत्व खगोल तथा भौतिक विज्ञान दोनों में है। आदित्यो ह वै ब्राह्मः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः । पृथिव्या या देवता सैषा पुरूषस्य अपानमवपृभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायुव्यनिः | - प्रश्नो . 3/8 2



तथा पृथिव्यामभिमानिनी या देवता प्रसिद्धा सैषा पुरूषस्य अपानमपानवृत्तिमवष्टभ्याकृष्य वशीकृत्याध एवापकर्षणेनानुग्रहं कुर्वती वर्तत इत्यर्थः अन्यथा हि शरीरं गुरूत्वात् पतेत्सावकाशे वा उदगच्छेत।। सं. विज्ञा., पृ. 87


पाश्चात्य वैज्ञानिक न्यूटन (Newton) ने गुरूत्वाकर्षण का जो नियम बताया है, इसका ज्ञान भारत के प्राचीन ग्रन्थों में बहुत पहले लिखा जा चुका है। इस विषय में प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री भास्कराचार्य द्वारा सिद्धान्त शिरोमणि में कथन है -


मरूच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्यः ।। आकृष्टिशक्तिश्च मही यथायत् खस्थं गुरू स्वाभिमुखं स्वशक्तया। आकृष्यते तत्पततीव भाति समेसमन्तात क्व पतत्वियं खे।।


अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे ? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरूत्व शक्तियां सन्तुलन बनाए रखती है। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन महर्षि भास्कराचार्य ने 550 वर्ष पूर्व (न्यूटन से) यह सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया था। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के विषय में महाभाष्य व्याकरण में कहा गया है कि




लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यग्गच्छति नोर्ध्वमारोहति पृथिवी विकारः

पृथिवीमेव गच्छति।

अर्थात् मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका हुआ बाहुवेग को पूरा करके न ही टेढ़ा जाता है और न अधिक ऊपर चढ़ता है किन्तु पृथ्वी का विकार होने के पृथिवी पर ही आता है।


भास्कराचार्य – सिद्धा. शिरो. गोला. भुवनकोश, 5-6 ?


वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका में पृथिवी की स्थिति के सम्बन्ध में कहा गया

है



पञ्च महाभूतमय स्तारागण पंजरे महीगोलः | स्वेयस्कान्तान्तः स्थो लोह इवावस्थितो वृतः।।


अर्थात् तारागण के पंजर में पञ्च महाभूतों से युक्त पृथिवी गोल आकाश में चुम्बकों के मध्य में लोहे के समान अवस्थित है। तारागण चुम्बक और पृथ्वी लोहे के समान है। इससे स्पष्ट है कि तारों में आकर्षण शक्ति है। उसी आकर्षण से आकृष्ट हो यह पृथ्वी स्थित है। पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में भी मिलता है। अथर्ववेद के द्वादश काण्ड में पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति तथा गति का उल्लेख मिलता है। इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल का ज्ञान वेदों के काल से चला आ रहा है। अतः इसकी खोज न्यूटन (Newton) से बहुत पहले ही हो चुकी थी। आदि शंकराचार्य भास्कराचार्य, प्रश्नोपनिषद तथा महाभारत में इस सिद्धान्त (गुरूत्वाकर्षण बल) का उल्लेख यह प्रमाणित करता है कि पृथ्वी की धारिता शक्ति से प्राचीन विद्वान् भली-भाँति परिचित थे।

असत्य से सत्य की तरफ,
बिहार का इतिहास,
समय निर्धारण और उपयोगी संवर्धन।
महाभारत काल मै कृषि,
महाभारत में ज्योतिष विज्ञान,
आज का राशि राशिफल,
कृषि में ज्योतिषीय प्रभाव,
महाभारत तथा कृषि विज्ञान,
महाभारत काल में कृषि विज्ञान,
वेद मंत्र का संदेश है,
 आविद्या का अर्थ,
भारत-अजरबैजान सम्बंध,
भारत अर्मेनिया संबंध
वेद का मन्त्र,
पुराण सम्बद्ध,
बाल्मीकि रामायण महात्म्य,
द्वितीय अध्याय में सौदास,
पुराण भारतीय धर्म,
शिव-शक्ति शिवलिंग का रहस्य,

Post a Comment

0 Comments